Thursday 23 August 2018

भारत में उच्च शिक्षा: चुनौतियाँ एवम् समाधान

Headline :  भारत में उच्च शिक्षा: चुनौतियाँ एवम् समाधान
Details :
 किसी भी देश के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व वैज्ञानिक विकास के लिए उच्च शिक्षा से लैस एक शिक्षित आबादी आवश्यक है। यदि भारत की बात करें तो भारत का उच्च शिक्षा तंत्र अमेरिका व चीन के बाद विश्व का तीसरा सबसे बड़ा उच्च शिक्षा तंत्र है। जहाँ लगभग 864 विश्वविद्यालय, 40026 कॉलेज और 11669 स्टैंड-अलोन संस्थान हैं। लेकिन, जब गुणवत्ता की बात आती है तो भारत के शिक्षा संस्थान विश्व के शीर्ष 100 में भी कहीं स्थान नहीं बना पाते। इससे स्वयंसिद्ध है कि भारत में उच्च शिक्षा की स्थिति अंतर्राष्ट्रीय मानकों के स्तर पर ठीक नही है।
 आज, भारत के सामने उच्च शिक्षा से संबंधित कई बुनियादी समस्याएँ हैं। इन समस्याओं में अपर्याप्त बुनियादी ढ़ाँचे और सुविधाएँ, संकाय पदों में खाली पड़ी रिक्तियाँ, कम छात्र नामाँकन दर, आउटडेटेड शिक्षण विविधाँ व पाठ्यक्रम, अनुसंधान मानकों में गिरावट, व्यापक भौगोलिक, आय, लिंग व जातीय असंतुलन इत्यादि शामिल हैं। इसके अलावा, गरीब परिवारों से आने वाले छात्रों के लिए गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा तक न्यायसंगत पहुंच सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती है। अकादमिक रूप से खराब पृष्ठभूमि के छात्रों को और नुकसान उठाना पड़ता है क्योंकि जिन शहरी अभिजात वर्ग व समृद्ध छात्रों के लिए निजी शिक्षण तथा कोचिंग तक पहुंच आसान है उनकी तुलना में ये छात्र शैक्षणिक रूप से प्रतिस्पर्द्धी परीक्षाओं को क्रैक करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं।
 वर्तमान समय में, भारत में उच्च शिक्षा में  नामाँकन दर अत्यंत कम है। यदि ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ द्वारा आयोजित ‘उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण’ के एक आँकड़े पर नज़र डालें तो भारत में उच्च शिक्षा में ‘सकल नामांकन दर’ (जी.ई.आर.) 25.2 प्रतिशत है, जिसका आधार 18 से 23 वर्ष के आयु वर्ग के कुल जनसंख्या में से नामांकित छात्रों की संख्या है। गौरतलब है कि भारत में महिलाओं का नामांकन दर (24.5%) पुरुष (26.0%) की तुलना में कम है। सरकार की तरफ से उच्च शिक्षा में ‘सकल नामांकन दर’ 2020 तक 30% का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
 यदि कॉलेज व विश्वविद्यालयों में छात्र-शिक्षक अनुपात की बात करें तो यह अनुपात मात्र 22 है। यहां तक कि, बदलते वैश्विक परिदृश्य में, भारत में उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम भी अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर खरा नहीं उतरता है। शिक्षण की विधि भी पुरानी परिपाटी पर ही आधाति है। इन संस्थानों में कुशल एवं पर्याप्त मानव संसाधनों की अत्यंत कमी है। वाणिज्यिक शिक्षा ने उच्च शिक्षा क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है। इससे असमानता को और अधिक बढ़ावा मिला है। सार्वजनिक संस्थानों में छात्र नामाँकन में गिरावट यह दर्शाता है कि आज शिक्षा अधिक महंगी हो गयी है। वर्तमान में मौजूद शिक्षण संस्थाएं सामाजिक-आर्थिक स्तर के रूप में कार्य करने के बजाए सामाजिक-आर्थिक विभाजन को और आगे बढ़ाने में सहायक बन गये हैं। जहाँ एक ओर, देश के छात्रों द्वारा निजी कॉलेजों में दाखिला लेने का प्रतिशत 67% है, वहीं दूसरी ओर सरकारी कॉलेजों में दाखिला का यह प्रतिशत मात्र 33% है।
 ध्यातव्य है कि, ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन और मान्यता परिषद्’ ने अपनी मूल्यांकन रिपोर्ट में बताया है कि, भारत के 68%संस्थान मध्यम या खराब गुणवत्ता वाले हैं। यदि, भारत सरकार द्वारा शिक्षा पर बजटीय आवंटन की बात करें तो यह मात्र 2.5% है जो सार्वजनिक संस्थानों में आधारभूत संरचना को अपग्रेड करने की दृष्टि से बहुत ही कम है। भारतीय संकाय के परिसरों में विदेशी छात्रों की कम संख्या भी दृष्टव्य है। लगभग 35 मिलियन छात्रों के कुल नामांकन में से केवल 4500 विदेशी छात्र ही नामांकित हैं।
 ज्ञातव्य है कि, भारत में शैक्षणिक अनुसंधान कार्य का स्तर बहुत ही निम्न है। इसके अतिरिक्त, यदि संख्या की दृष्टि से मूल्यांकन करें तो भारत में प्रति मिलियन 119 शोधकर्ता हैं जो जापान व अमेकिा जैसे देशों की तुलना में बहुत ही कम है।
 इसके अलावा, भारत में शिक्षा संस्थानों की सीमित स्वायत्तता भी चिंता का विषय है।
 देश को विकसित राष्ट्र में बदलने के लिए आवश्यक है कि हम अपनी उच्च शिक्षा प्रणाली में आवश्यकतानुरूप परिवर्तन करें। भारत में उच्च-शिक्षा की वर्तमान समस्याओं को दूर करने हेतु इसकी गंभीरता से ईलाज करना जरूरी है। आज अध्यापन विधि को परिवर्तित करने की आवश्यकता है, साथ ही वर्तमान पाठ्यक्रम में वैश्विक परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए बदलाव करते हुए इसे देश की अर्थव्यवस्था व वैश्विक बाजार की जरूरतों के साथ लिंक करना होगा। शोध की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए भारत को विदेशी संस्थानों के साथ सहयोग करने की जरूरत है। भारत में उच्च शिक्षा की स्थिति को सुधारने व और इसको और अधिक प्रतिस्पर्धात्मक बनाने हेतु विदेशी शिक्षण संस्थानों को भारत के शिक्षा क्षेत्र में प्रवेश देने से संबंधित सभी आयामों पर विचार किया जा सकता है।
 सरकार को ‘राष्ट्रीय ज्ञान आयोग’ के उस सिफारिश पर भी ध्यान देना होगा जिसमें कहा गया है कि यू.जी.सी. को अनुदान की शक्तियों से हटा दिया जाए। ‘सिंगापुर’ के दृष्टिकोण का अनुसरण करते हुए सरकार द्वारा ‘टियरिंग फंडिंग मॉडल’ को भी अपनाया जा सकता है, जिसमें उच्च प्रदर्शन मानकों वाले संस्थानों को अधिक धन और अधिक स्वायत्तता प्रदान करने की जरूरत है। शिक्षकों को दिए गये वेतनमान में सुधार कहीं न कहीं उन्हें अपने कार्य के प्रति प्रोत्साहित ही करेगा।
 विश्वविद्यालयों को केवल विनियमित करके सुधार नहीं किया जा सकता है, इसके बजाए, एक कारगर व उचित उपाय अपनाते हुए सक्षम वातावरण निर्मित करने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, कार्य नैतिकता को नियंत्रित करते हुए बेहतर वित्त पोषण और अनुसंधान हेतु नये उपकरणों को प्रदान करना आवश्यक है, ताकि भारत अपने जनांकिकीय लाभांश का मानव पूंजी के रूप में अनुकूलतम दोहन कर सके।
 निष्कर्षतः भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र को नया आयाम देने हेतु सावधानीपूर्वक योजना बनाई जानी चाहिए ताकि भविष्य में क्षेत्रीय व सामाजिक असंतुलन को समाप्त किया जा सके। मानको को बेहतर बनाने और उत्कृष्टता के अंतर्राष्ट्रीय मानक तक पहुंचने के लिए संस्थानों में व्याप्त कमियों को दूर करते हुए उन्हें पुनर्जीवित करना होगा। उच्च शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए सरकार, निजी क्षेत्र, अकादमिक और नागरिक समाज के व्यापक और सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता होगी, ताकि सभी के लिए उपलब्धता, पहुंच और वहनीयता को सुनिश्चित करते हुए देश की उच्च शिक्षा में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गुणवत्ता और उत्कृष्टता स्थापित किया जा सके।

AMBIENT PM 2.5 REDUCES GLOBAL & REGIONAL LIFE EXPECTANCY, FINDS STUDY

Nicha wala link par click karo,  ya file hindi ma download ho jayi gi.

AMBIENT PM 2.5 REDUCES GLOBAL & REGIONAL LIFE EXPECTANCY, FINDS STUDY



ILO: LOW PAY & WAGE INEQUALITY, A SERIOUS CHALLENGE IN INDIA

Nicha wala link par click karo,  ya file hindi ma download ho jayi gi.

ILO: LOW PAY & WAGE INEQUALITY, A SERIOUS CHALLENGE IN INDIA

INDIA, JAPAN REAFFIRM VOW FOR DEEPER TIES, INDO-PACIFIC STABILITY

Nicha wala link par click karo,  ya file hindi ma download ho jayi gi.

INDIA, JAPAN REAFFIRM VOW FOR DEEPER TIES, INDO-PACIFIC STABILITY


Friday 29 June 2018

PRESIDENT OF INDIA INAUGURATES “UDYAM SANGAM-2018”

Nicha wala link par click karo,  ya file hindi ma download ho jayi gi.

PRESIDENT OF INDIA INAUGURATES “UDYAM SANGAM-2018”

INDIA SEYCHELLES TO JOINTLY DEVELOP ‘ASSUMPTION ISLAND NAVAL BASE’

Nicha wala link par click karo,  ya file hindi ma download ho jayi gi.

INDIA SEYCHELLES TO JOINTLY DEVELOP ‘ASSUMPTION ISLAND NAVAL BASE’

हिंद महासागर में चीन को जवाब (Source:- LiveHindustan.com)

अभिजीत सिंह (सीनियर फेलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन)
एजम्पशन आइलैंड पर नौसैनिक अड्डा बनाने को लेकरभारत और सेशेल्स के बीच बनी सहमति सामरिक नजरिये से काफी अहम है। यह सही है कि 2015 का यह समझौता इस साल संशोधित किए जाने के बाद भी वहां की संसद की मंजूरी नहीं पा सका है। मगर दोनों देश एक-दूसरे के हितों को देखते हुए आपस में मिलकर इस नौसैनिक अड्डे पर काम करने को लेकर सहमत हुए हैं, जो सुकूनदेह है। इसे सेशेल्स के राष्ट्रपति डैनी फॉर के भारत दौरे की ‘बेस्ट पॉसिबल आउटकम’ कहा जा रहा है, यानी सबसे अच्छा संभावित नतीजा। मौजूदा स्थिति में इससे बेहतर परिणाम नहीं निकल सकता था। अगर यह समझौता रद्द हो जाता (जिससे जुड़ी रिपोर्ट कुछ दिनों पहले खबरों में आई थी), तो हमें खासा नुकसान हो सकता था। मगर अब उम्मीद बंधी है कि अगले चुनाव में सेशेल्स के मौजूदा राष्ट्रपति यदि और अधिक प्रभावी तरीके से सत्ता में आते हैं, तो यह समझौता वहां की संसद की रजामंदी पा सकता है।
इस नौसैनिक अड्डे को लेकर भारत की उत्सुकता और सेशेल्स की झिझक को समझना मुश्किल नहीं है। चीन इसकी एक बड़ी वजह है। उसका प्रभाव हिंद महासागर में लगातार बढ़ रहा है। यहां पहले भारत प्रभावी भूमिका में था और चीन दक्षिण चीन सागर में। मगर अब हिंद महासागर में चीन की दखल के बाद क्षेत्र की राजनीतिक व सामरिक तस्वीर पूरी तरह बदल गई है। उसने पूर्वी अफ्रीकी देश जिबूती में अपना सैन्य अड्डा तो बना ही लिया है, ग्वादर (पाकिस्तान) और हम्बनटोटा (श्रीलंका) बंदरगाह भी अपने खाते में झटक लिए हैं। इस बदलते घटनाक्रम से नई दिल्ली का चिंतित होना लाजिमी है। इस लिहाज से हमारे लिए एजम्पशन आइलैंड उम्मीद की एक बड़ी किरण है। यहां यदि नौसैनिक अड्डा बनकर तैयार हो जाता है, तो यह चीन को करारा जवाब देने जैसा होगा। मगर दुर्भाग्य से, चीन के दबाव के कारण ही सेशेल्स फिलहाल उलझन में दिख रहा है।  दरअसल, साल 2004 के बाद से सेशेल्स में चीन का निवेश काफी बढ़ गया है। और जिस तरह हिंद महासागर में भारत व चीन की स्पद्र्धा चल रही है, उसमें सेशेल्स, मॉरिशस, मालदीव जैसे आस-पास के तमाम छोटे-बड़े देश व आइलैंड खुलकर सामने आने से कतरा रहे हैं।
वे भारत को खुलेआम समर्थन देकर चीन की नाराजगी नहीं मोल लेना चाहते। एक दिक्कत यह भी रही कि कुछ सामरिक पंडित ने एजम्पशन आइलैंड के नौसैनिक अड्डे को इस रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया था, मानो यह अड्डा भारत का होगा और यहां से चीन के जहाजों पर नजर रखी जाएगी। इस अति-उत्साह ने भी सेशेल्स को अभी आगे बढ़ने से रोका है। अगर वह यह कहता कि नौसैनिक अड्डा भारत ही बनाएगा, तो भारत-चीन प्रतिस्पद्र्धा में संभवत: वह भी हिस्सा बनता दिखता। हालांकि अब भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है। अच्छी बात यह है कि सेशेल्स से हमारे रिश्तों में खटास नहीं आई है। लिहाजा भविष्य के लिए हम सकारात्मक भरोसा रख सकते हैं।
भारत और सेशेल्स के बीच बनी ताजा सहमति भी हमारे लिए कम फायदेमंद नहीं है। संयुक्त नौसैनिक अड्डा हिंद महासागर में हमारी सामरिक ताकत बढ़ाएगा। यहां भारत को घेरने के लिए चीन की विस्तारवादी नीतियां अपनी गति से चल रही हैं। आलम यह है कि उसकी पनडुब्बियां कभी-कभी दक्षिण एशियाई सागर में भी आ जाती हैं और हम उसे पकड़ नहीं पाते। हालांकि इसकी वजह तकनीक और साजो-सामान के मामले में हमारा चीन से कमतर होना भी है। मगर सेशेल्स का नौसैनिक अड्डा बनता है और भारत की मौजूदगी वहां बढ़ती है, तो इस महासागर में चीन की दखल पर हमारी नजर बनी रहेगी। यह सही है कि चीन को ‘काउंटर’ करने के लिए हमारे पास जितने पत्ते होने चाहिए, उतने नहीं हैं।
हमारा प्रयास मालदीव और मेडागास्कर जैसे राष्ट्रों से रिश्ता बढ़ाकर भी उसे रोकने का रहा है, जिसमें हमें सफलता नहीं मिल पाई। फिर चीन का इन देशों पर आर्थिक व राजनीतिक प्रभाव भी खासा है। इस लिहाज से देखें, तो सेशेल्स से समझौता हो पाना ही अपने-आप में बड़ी उपलब्धि है। हिंद महासागर में चीन से एक और चुनौती हमें ‘वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव’ के रूप में मिल रही है। इसके तहत महासागरीय क्षेत्र में भी तमाम तरह के निवेश किए जा रहे हैं। इसकी काट के लिए हम अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर एक ‘चतुष्कोणीय’ गुट बनाने को तत्पर हैं। यह एक राजनीतिक समूह तो होगा ही, इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए भी इसका अस्तित्व काफी मायने रखेगा। एक संयुक्त क्षेत्रीय ढांचागत स्कीम तैयार करने पर चारों देश विचार कर रहे हैं। अगर यह साकार हो जाता है, तो हम चीन को कई मामलों में चुनौती दे सकेंगे।
हालांकि वुहान में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्राध्यक्ष शी जिनपिंग की ‘अनौपचारिक मुलाकात’ से एक संदेश यह भी निकला कि भारत अब चीन के साथ एक स्थिर संबंध बनाने को लेकर अपनी ओर से रुचि दिखा रहा है। इसने ‘चतुष्कोणीय’ गुट की बुनियाद थोड़ी कमजोर की है। हालांकि मेरा मानना है कि जब तक इस चौकड़ी के बहाने हम राजनीतिक और सामरिक संबंधों को गति नहीं देंगे, हिंद महासागर में चीन की बढ़ती चुनौती का प्रभावी जवाब शायद ही दे पाएंगे। हमें अपनी उस ‘नेबरहुड पॉलिसी’ (पड़ोसी देशों को खास तवज्जो देने की नीति) को भी नई धार देनी होगी, जिसकी तरफ 2015 में कदम बढ़ाए गए थे। यह न सिर्फ हिंद महासागर क्षेत्र के लिए, बल्कि दक्षिण एशिया के लिहाज से भी किया जाना जरूरी है। आज भूटान, नेपाल जैसे हमारे करीबी पड़ोसी देश भी चीन के पाले में जाते दिख रहे हैं। हमें उन्हें समझाना होगा कि चीन या अमेरिका की तुलना में, भारत के साथ रिश्तों को मजबूती देना उनके लिए कहीं ज्यादा फायदेमंद है।

कूटनीतिक हासिल (Source:- जनसत्ता)

आखिरकार भारत एजम्पशन द्वीप में नौसैनिक अड्डा बनाने देने के लिए सेशेल्स को राजी करने में सफल हो गया। यह भारत की एक अहम कूटनीतिक उपलब्धि है। इसकी अहमियत का अंदाजा हिंद महासागर में चीन की बढ़ती पैठ को ध्यान में रख कर ही लगाया जा सकता है। चीन जिबूती बेस के जरिए हिंद महासागर में अपनी गतिविधियां बढ़ा चुका है। भारत और सेशेल्स के बीच बनी सहमति चीन की इसी सक्रियता की काट निकालने की कोशिश है। अगर इसके लिए सेशेल्स को भारत राजी नहीं कर पाता, क्या पता कल वह चीन या फ्रांस को नौसैनिक अड्डा बनाने की मंजूरी दे देता। यों सेशेल्स से भारत की नजदीकी तभी बढ़ गई थी जब 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां गए थे। तभी नौसैनिक अड्डा बनाए जाने के प्रस्ताव पर सहमति बन गई थी। यही नहीं, सेशेल्स के सैनिकों को प्रशिक्षण और सैन्य सामग्री की आधी से अधिक आपूर्ति भारत ही करता रहा है। पर नौसैनिक अड्डे के लिए सेशेल्स को रजामंद कर पाना भारत के लिए आसान नहीं था, क्योंकि वहां का विपक्ष इस प्रस्ताव के खिलाफ था। और, विपक्ष के तीखे विरोध को देखते हुए राष्ट्रपति डैनी फॉर ने भारत का प्रस्ताव रद्द कर दिया था। इसे भारत की हार और चीन की जीत के रूप में देखा गया।
कुछ दिन पहले तक भारत के लिए स्थिति निराशाजनक थी। हाल में डैनी फॉर ने कह दिया था कि जब वे भारत जाएंगे तो एजम्पशन आइलैंड में नौसैनिक अड्डा बनाने के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी के साथ कोई बातचीत नहीं करेंगे। लेकिन आखिरकार भारत ने हारी हुई बाजी पलट दी। भारत ने कोई नाराजगी दिखाने के बजाय सेशेल्स से सहयोग और सदाशयता का व्यवहार जारी रखा, और उसे बतौर उपहार एक विमान तटीय निगरानी के लिए दिया। इससे सेशेल्स के राजनीतिक नेतृत्व का विश्वास अर्जित करने में भारत को सफलता मिली और फॉर के दिल्ली आने पर भारत का मंसूबा एक द्विपक्षीय सहमति में बदल गया। जाहिर है, भारत के प्रति सेशेल्स का ताजा रुख चीन को रास नहीं आया होगा। डैनी फॉर के साथ सुरक्षा समेत विभिन्न मुद्दों पर चर्चा के बाद मोदी ने सेशेल्स को छह सौ इक्यासी करोड़ रुपए कर्ज देने का भी एलान किया। फॉर ने कहा कि इससे सेशेल्स के बुनियादी सैन्य ढांचे को मजबूत बनाने में मदद मिलेगी; इस कर्ज से हम नए सरकारी भवन, पुलिस मुख्यालय और महान्यायवादी कार्यालय का निर्माण करेंगे। इस मौके पर भारत और सेशेल्स के बीच छह समझौतों पर हस्ताक्षर हुए, जो कि साइबर सुरक्षा, समुद्री सुरक्षा और बुनियादी ढांचा विकास आदि से संबंधित हैं। समुद्री सुरक्षा के तहत महासागरीय क्षेत्रों में मौजूद असैन्य वाणिज्यिक पोतों की पहचान और आवाजाही संबंधी सूचनाएं साझा की जाएंगी।
डैनी फॉर के साथ वार्ता के बाद मोदी ने कहा कि भारत सेशेल्स की रक्षा क्षमता बढ़ाने और समुद्री बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने के लिए वचनबद्ध है। भारत और सेशेल्स प्रमुख सामरिक सहयोगी हैं और हिंद महासागर में शांति, सुरक्षा और स्थिरता कायम करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। आगे उन्होंने कहा कि दोनों देश समुद्री लूट, नशीले पदार्थों की तस्करी, मानव तस्करी और समुद्री संसाधनों का अवैध तरीके से दोहन जैसे अंतरराष्ट्रीय अपराधों का सामना कर रहे हैं। भारत और सेशेल्स मिल कर इन चुनौतियों से पार पाने की कोशिश करेंगे। भारत और सेशेल्स के बीच एजम्पशन परियोजना पर काफी समय से बातचीत चलती रही है, मगर जमीन पर कुछ नहीं हो पाया। देखना है अब यह परियोजना कब मूर्त रूप लेती है ।

अहम शक्ति बनने के लिए जरूरी हैं समुद्री क्षमताएं (Source:- Business Standard)

अगले दो दशक में दुनिया की प्रमुख ताकत बनने के लिए यह आवश्यक है कि भारत समुद्री क्षेत्र में गहरी क्षमताएं विकसित करे।

प्रेमवीर दास , (लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं। प्रस्तुत विचार पूरी तरह व्यक्तिगत हैं।)
इन दिनों हर तरफ समुद्री सुरक्षा की चर्चा चल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका यात्रा के दौरान वहां के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से जो बातचीत की उसके बाद ऐसी चर्चाओं का सिलसिला शुरू हुआ जिनसे यह बोध हुआ कि भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में हित वाला एक प्रमुख समुद्री क्षेत्र बन सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फ्रांस के राष्ट्रपति एमानुअल मैक्रां के साथ बातचीत के दौरान और फिर आसियान देशों के प्रमुखों के साथ चर्चा में भी समुद्री सुरक्षा का मुद्दा प्रमुख रहा। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के साथ बातचीत में भी इस विषय पर चर्चा हुई।
अभी हाल ही में इंडोनेशिया, मलेशिया और सिंगापुर में और सैद्घांतिक तौर पर सामरिक महत्व के शांग्रीला संवाद में अपने वक्तव्य में मोदी ने देश के इर्दगिर्द के समुद्री क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर चिंता जाहिर की। इतना ही नहीं उन्होंने सिंगापुर में विशेष रूप से तैनात भारतीय युद्घपोत पर अमेरिकी रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस का स्वागत भी किया। अगर कोई साधारण व्यक्ति इस परिदृश्य पर दृष्टिï डाले तो उसे लगेगा कि भारत बहुत तेजी से उपमहाद्वीपीय भूक्षेत्र वाले शक्तिशाली राष्ट्र से समुद्री क्षमता संपन्न देश बनने की ओर अपनी रुचि बढ़ा रहा है। परंतु जमीनी हकीकत एकदम अलग है।
हमारा रक्षा बजट 27.4 खरब रुपये का है जो जीडीपी के प्रतिशत के हिसाब से अब तक का न्यूनतम है। नौसेना को इसमें से 14 फीसदी राशि आवंटित होती है। ऐसे में तो हम हिंद महासागर क्षेत्र के आसपास ही बहुत प्रभावी नहीं रह पाएंगे, एशिया-प्रशांत क्षेत्र की तो बात दूर ही है। हां, एक या दो युद्घपोतों से यदाकदा मित्रतापूर्ण यात्राएं की जा सकती हैं और मित्र नौसेनाओं की मदद से कुछ युद्घाभ्यास किए जा सकते हैं। यहां तक कि मालाबार जैसा बड़ा सैन्याभ्यास भी किया जा सकता है लेकिन इससे हम बड़ी समुद्री शक्ति नहीं बन जाएंगे।
ताजातरीन रक्षा बजट के केवल 14 फीसदी के साथ नौसेना नकदी की कमी से जूझ रही है और समूचे हिंद महासागर क्षेत्र के लिए तैयार नहीं है। हिंद-प्रशांत तो दूर की बात है। रक्षा नीतिकारों को यह समझना होगा। अगर हमें उपरोक्त लक्ष्यों को हासिल करना है तो हमें सामरिक रुझान को देखते हुए अपना निवेश बढ़ाना होगा और अगर हम उस दिशा में बढ़ते हैं तो दो मोर्चों पर युद्घ की तैयारी जैसी बातें तत्काल हमारी राह रोक लेती हैं। क्षमताओं के साथ ऐसा कोई भी समझौता नौसेना की हिस्सेदारी को हमेशा सीमित रखेगा और इस तरह प्रधानमंत्री के सपनों का हकीकत में बदलना दूरी की कौड़ी बना रहेगा।
15 साल पहले रक्षा बजट में नौसेना की हिस्सेदारी 18 फीसदी थी और उसके जल्दी 20 फीसदी होने की उम्मीद थी। उसके लिए हमारी जमीनी सीमा पर आक्रमण होने और घरेलू स्तर पर पनपने वाले किसी भी तरह के विद्रोह का पुनर्आकलन होना था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। चूंकि थल सेना की हिस्सेदारी पहले जैसी बरकरार है इसलिए भारतीय सशस्त्र बलों को वह मिलता रहेगा जो वे पिछले छह दशक से पाते रहे हैं। इस तरह समुद्री शक्ति बनने की चर्चा केवल बातों में रह जाएगी। लब्बोलुआब यह है कि मौजूदा विचार प्रक्रिया के मुताबिक समुद्री क्षमता बढ़ाने की भारत की जोर नहीं पकड़ पाएगी और अपेक्षाकृत दूर बनी रहेगी।
अमेरिका की कोशिश हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर ध्यान देने की है और इसे समझा जा सकता है। देर से सही लेकिन यह चीन द्वारा पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में उठाए जा रहे कदमों के प्रति सीधी प्रतिक्रिया है। वह चीन को दक्षिणी चीन सागर के स्पार्टली द्वीप में यानी ऐसे इलाके में विमानन परिचालन सुविधा कायम करने से रोकना चाहता है जो साफ तौर पर उसका भूभाग नहीं है। इस बीच क्षेत्र में अपनी पहुंच बढ़ाने के क्रम में अमेरिका कई क्षेत्रीय देशों को अपने पाले में करना चाहता है। जापान और ऑस्ट्रेलिया तो पहले से ही उसके पाले में हैं जबकि भारत उनमें ताजातरीन है।
भारत की नीति इस क्षेत्र में सक्रिय रहने की हो सकती है लेकिन अगर वह इस क्षेत्र की एक अहम ताकत बनना चाहता है तो उसे समुद्र में विश्वसनीय क्षमता दिखानी होगी। खासतौर पर हिंद महासागर क्षेत्र में। जैसा कि हमने पहले कहा अभी उसके पास ऐसी क्षमता नहीं है और भविष्य में भी ऐसा तब तक नहीं होगा जब तक कि हम अपनी सोच में परिवर्तन नहीं लाएंगे। हमें भू सीमाओं प्रति अपने लगाव को परे करना होगा। भू सीमाओं पर शत्रु के आक्रमण और कब्जे की आशंकाओं में कुछ दशक पहले तक दम था लेकिन बीते कुछ वर्षों में हालात नाटकीय अंदाज में बदल गए हैं। हम सभी इस बात को अच्छी तरह समझते भी हैं। संक्षेप में कहें तो हम जो कहते हैं उसमें और हमारी क्षमताओं में बहुत अधिक अंतर है।
हमारी आकांक्षाओं को परिणाम में बदलने के लिए भारत को खुद को पारंपरिक उपमहाद्वीपीय शक्ति से एक मजबूत समुद्री शक्ति में बदलना होगा। अगर हमें अगले 20 वर्ष में दुनिया की शीर्ष चार-पांच ताकतों में से एक बनना है तो हमें समुद्री क्षमताओं के विकास पर काफी ध्यान देना होगा। पश्चिमी ताकतों की बात करें तो वे ऐतिहासिक रूप से समुद्री शक्ति वाले देश रहे हैं और अब तो चीन भी यह स्वीकार कर चुका है कि कोई देश तब तक बड़ी शक्ति नहीं बन सकता है जब तक कि उसने समुद्री क्षेत्र में अपनी क्षमताओं को साबित नहीं कर दिया हो। इसीलिए चीन पूर्वी और दक्षिणी चीन सागर में आक्रामक भूमिका में नजर आ रहा है और उसने हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी क्षमताएं विकसित की हैं। उसकी युद्घपोत निर्माण परियोजना बहुत तेज गति से चल रही है और उसने केवल पांच साल में विमान वाहक पोत तैयार किया है। इससे भी पता चलता है कि वह लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में किस गति से बढ़ रहा है। हमारे पास वक्त बहुत कम है।
हमारे देश में सुरक्षा की स्थिति तेजी से बदल रही है। अब हमें दुनिया में शीर्ष तीन-चार शक्तियों में से एक बनना होगा। इसके लिए हमें राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य क्षमता विकसित करनी होगी। हमारे सशस्त्र बलों के आकार पर नए सिरे से नजर डालने का वक्त है। इसलिए नहीं कि इससे अगले कुछ सालों में कोई बड़ा बदलाव आने वाला है बल्कि इसलिए क्योंकि बिना इसके हम वहां नहीं पहुंच सकेंगे जहां हमें अब से दो दशक बाद होना चाहिए। इस लिहाज से देखें तो मौजूदा सरकार और प्रधानमंत्री ने अपनी बात कहकर शुरुआत कर दी है। परंतु केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है। अब वक्त आ गया है कि बातों पर अमल किया जाए।

Wednesday 20 June 2018

UNITED STATES WITHDRAWS FROM UNHRC AS CRITICISM MOUNTS OVER BORDER POLICY

Nicha wala link par click karo,  ya file hindi ma download ho jayi gi.

UNITED STATES WITHDRAWS FROM UNHRC AS CRITICISM MOUNTS OVER BORDER POLICY

INDIA & ITALY AGREE TO REVITALISE BILATERAL TIES

Nicha wala link par click karo,  ya file hindi ma download ho jayi gi.

INDIA & ITALY AGREE TO REVITALISE BILATERAL TIES

अलविदा कह चुके जी-7 की जगह कौन लेगा (Source:- Livehindustan.com)

कभी पश्चिमी उदारवादी व्यवस्था में सबसे ऊंची हैसियत पाने वाला जी-7 दम तोड़ चुका है। इसकी हत्या किसी बाहरी दुश्मन ने नहीं की, बल्कि अपने क्रोध में इसके जनक ने ही इसकी जान ली है। इस संगठन में कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन और अमेरिका शामिल हैं। जून के पहले पखवाड़े में इसका शिखर सम्मेलन कनाडा में हुआ था, जहां अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस पर ऐसा विनाशकारी वार किया, जो पहला तो नहीं था, पर प्राणघातक जरूर साबित हुआ। 1970 के दशक में गठित इस समूह के दो उद्देश्य रहे हैं। पहला, आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा मतभेदों से निपटना और सदस्यों पर आए संकटों का निपटारा करना। और दूसरा, पश्चिमी लोकतांत्रिक व उदारवादी आर्थिक व्यवस्था का विश्व पर प्रभुत्व जमाना।  हालांकि 1996-97 के एशियाई आर्थिक संकट ने वैश्वीकरण की चुनौतियों का सामना करने की इसकी सीमाओं को बेपरदा कर दिया और दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं के संगठन जी-20 के गठन की बुनियाद तैयार की। 1997 में रूस को जी-7 में शामिल करने का फैसला लिया गया, जो समूह के दो बुनियादी सिद्धांतों के विपरीत था।
पहला, चीन और भारत की तुलना में छोटी अर्थव्यवस्था वाला देश रूस तब दुनिया की शीर्ष 10 अर्थव्यवस्थाओं में शामिल नहीं था। और दूसरा, इसका लोकतंत्र कसौटी पर पूरी तरह खरा नहीं माना जाता था। इस तरह, जी-8 भू-आर्थिकी नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक वजहों से साकार हुआ, जिसने इसके साझा उद्देश्य को भी कमजोर किया। 2014 में रूस को इससे निष्कासित करने का फैसला भी भू-राजनीतिक वजहों से ही उचित ठहराया गया था। रही-सही कसर 2008 की आर्थिक मंदी ने पूरी की, जो जी-8 की कुछ नीतियों की ही देन थी। मंदी ने जी-20 को अधिकार संपन्न बनाया, जो कम से कम भू-आर्थिकी की चुनौतियों से पार पाने में कहीं अधिक बेहतर था। आज कुल वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में जी-7 देशों की हिस्सेदारी 47 फीसदी के करीब है। इसके पांच देश (अमेरिका, जर्मनी, जापान, ब्रिटेन और फ्रांस) ही शीर्ष सात आर्थिक ताकतों में शामिल हैं। इटली व कनाडा को चीन व भारत ने पीछे धकेल दिया है। जी-7 की मौत पर ज्यादा आंसू बहने की संभावना नहीं है। उम्मीद है, इसका पुनरोद्धार हो या कई दूसरे गुट हम बनते हुए देखें। पहला रास्ता यह है कि जी-20 को जी-7 की जगह मिल जाए। यह बदलाव तभी प्रभावी होगा, जब मूल उद्देश्य वित्तीय और आर्थिक संकटों का तत्काल निपटारा हो।
हालांकि इसने भी यदि भू-आर्थिकी के मुद्दों से निपटना व लोकतांत्रिक उदारवादी व्यवस्था को बरकरार रखना मूल उद्देश्य बनाए रखा, तो जी-20 अनुपयुक्त साबित होगा। इसके कई सदस्य देश लोकतंत्र की अवधारणा पर खरे नहीं उतरते और उनमें भू-आर्थिकी के हित भी टकरा रहे हैं। दूसरा विकल्प जी-7 में सुधार का है, जो सिर्फ देश की अर्थव्यवस्था के आकार पर आधारित हो। संशोधित जी-7 में चीन और भारत भी शामिल हो सकेंगे तीसरा विकल्प ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) के आसपास जी-6 बनाने का हो सकता है। विश्व जीडीपी में करीब 30 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले ब्रिक्स देश आज शीर्ष 10 अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हैं। हालांकि अमेरिका के बिना, जिसकी वैश्विक अर्थव्यवस्था में लगभग 24 फीसदी हिस्सेदारी है, इस गुट का भू-आर्थिकी प्रभाव सीमित रहने की संभावना है। एक विकल्प सात देशों का एक नया समूह भी सकता है, जिसमें ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, यूरोपीय संघ, भारत, जापान और दक्षिण कोरिया शामिल हों। इन सबकी वैश्विक जीडीपी में करीब 40 फीसदी की हिस्सेदारी है और यह बड़ी आर्थिक ताकतों व उदारवादी वैश्विक व्यवस्था, दोनों का प्रतिनिधित्व करेगा। हालांकि यूरोपीय संघ की खस्ता हालत और अमेरिका के साथ बाकी के सदस्य देशों के आर्थिक व सुरक्षा संबंध इस विकल्प को शायद ही हकीकत बना सकें। लब्बोलुआब यही है कि नए जी-7 के उभरने की पूरी संभावना है, चाहे रास्ता जो भी हो।

सरकारी कुप्रबंधन का ही नमूना है एयर इंडिया (Source:- Business Standard )

अधिकांश देशों में संप्रभु शक्ति के साथ कॉर्पोरेट क्षेत्र के साझा स्वामित्व को किसी भी कंपनी के लिए स्थिरता की ठोस गारंटी माना जाता है। हालांकि भारत में सरकारी हिस्सेदारी को इस तरह के सौदों में बड़े अवरोध के तौर पर देखा जाता है। भारत सरकार को एक गैर-भरोसेमंद और स्वच्छंद कामकाजी साझेदार माना जाता है। सरकारी एयरलाइन एयर इंडिया की हिस्सेदारी बेचने के लिए जारी निविदा में कोई भी बोली नहीं लगाए जाने का मूल संदेश यही है। एयर इंडिया में 24 फीसदी हिस्सेदारी बनाए रखने के भारत सरकार के फैसले को संभावित खरीदार किस तरह लेतेे? अनुलाभों एवं विशेषाधिकारों (कार, मुफ्त यात्रा, अतिथिगृहों के इस्तेमाल) की मांगों के अलावा कंपनी के कामकाज में मनमाना दखल देकर नीतिगत एवं चुनावी लक्ष्यों को पूरा करने की कोशिश तक भारत सरकार हरेक के लिए एक दु:स्वप्न ही है- दखलंदाजी करने वाला, घूसखोर और उससे भी बुरी बात गैर-जिम्मेदार सरीखा शेयरधारक है। मौजूदा दौर में नियमन में कमी आने के बावजूद सरकारी तेल कंपनियों को तेल कीमतों के बारे में साउथ ब्लॉक से निर्देश मिलते हैं। बैंक भी कर्ज माफी योजनाओं के संभावित ऐलान और मुनाफा नहीं दे रहे नि:शुल्क खातों के रखरखाव के बोझ तले दबे हैं। इसी तरह महारत्न कंपनियां भी सरकार की तरफ से ऊंचे लाभांश की मांगों को लेकर आशंकित रहती हैं।
सरकार के स्तर पर व्याप्त ऐसे ही कुप्रबंधन का एक मॉडल एयर इंडिया है। विमान खरीद के महंगे सौदे ने इस एयरलाइन को कर्ज के बोझ तले दबाने का काम किया और संभावित खरीदार को भी इसका एक हिस्सा चुकाना पड़ेगा। बाजार के बजाय नौकरशाही से इस एयरलाइन का मुख्य कार्याधिकारी चुने जाने की प्रवृत्ति ने भी प्रतिस्पर्द्धा कर पाने की एयर इंडिया की क्षमता को प्रभावित किया है। मंत्रियों और सांसदों की वजह से उड़ानों में होने वाला विलंब, परिवार के सदस्यों के लिए भी प्रीमियम सेवाओं की मांग और खुद एयरलाइन स्टाफ की बदसलूकी कड़ी प्रतिस्पद्र्धा और बेहद कम मार्जिन पर चलने वाले कारोबार के लिए मददगार नहीं है। एयर इंडिया के विभिन्न कर्मचारी संगठनों ने विनिवेश की कोशिश नाकाम होने का जश्न मनाया है। जरूरत से ज्यादा कर्मचारियों की मौजूदगी एक ऐसा सिरदर्द है जिसे कोई भी खरीदार नहीं झेलना चाहेगा। सरकार के एयर इंडिया से पूरी तरह अलग होने की स्थिति में भी इसकी बढ़ी हुई अक्षमता और विफलता इसे बिक्री के लिहाज से अनाकर्षक बना देती है।
निवेश की मंशा रखने वाली कंपनियों को यह भी पता चलेगा कि भारत सरकार का एक साझेदार के तौर पर प्रदर्शन दूसरी कंपनियों में भी मुश्किल पैदा करने वाला ही रहा है। अच्छी याद्दाश्त वाले लोगों को मारुति की साझेदार कंपनी सुजूकी के साथ छिड़ा प्रबंधकीय विवाद भी याद होगा। उस समय मारुति सुजूकी में 50 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाली सरकार के उद्योग मंत्रियों और नौकरशाहों ने इस साझा उपक्रम के चेयरमैन और फिर प्रबंध निदेशक के चयन में लगातार सुजूकी पर अपनी राय थोपी। इन दोनों ही पदाधिकारियों का मारुति के बोर्ड में शामिल सुजूकी के प्रतिनिधियों के साथ खराब रिश्ता रहा। उस समय ऐसी चर्चाएं थी कि सुजूकी के प्रतिनिधि आर सी भार्गव (संप्रति मारुति के चेयरमैन) की ताकत को कम करने के लिए ऐसा किया गया। इस बात की सच्चाई के बारे में नहीं मालूम है लेकिन भारत सरकार का संकीर्ण रवैया काफी असहज करने वाला था। इस विवाद के पीछे तकनीकी हस्तांतरण और क्षमता विस्तार को लेकर पैदा हुई असहमति, राष्ट्रीयकरण की धमकियों और अदालती मामलों का हाथ था। हालांकि बाद में वाजपेयी सरकार ने समझदारी भरा रवैया अपनाया और सुजूकी की तरफ से प्रबंध निदेशक के लिए सुझाए गए नाम पर मुहर लगा दी। इसके बदले में अदालती मुकदमा वापस ले लिया गया और जापानी कार कंपनी को परिचालन में अधिक भूमिका दे दी गई।
सुजूकी की पसंद जगदीश खट्टर प्रबंध निदेशक बने, कंपनी को बाजार में सूचीबद्ध किया गया और धीरे-धीरे सरकार उससे पूरी तरह अलग हो गई। यह कहना वाजिब होगा कि तब से मारुति ने अपनी जमीन मजबूती से बरकरार रखी है।  साझा उपक्रमों में इस तरह के प्रबंधकीय विवाद सरकार की निवेश आकांक्षाओं को प्रभावित कर सकते हैं। अगर निवेशकों के मन में फिर भी कोई संदेह है तो वे वेदांत के अनिल अग्रवाल से पूछ सकते हैं। बालको और हिंदुस्तान जिंक को वर्ष 2000 के शुरुआती दौर में खरीदने वाले अग्रवाल को अब भी सौ फीसदी नियंत्रण हासिल करने के प्रावधान पर अमल का इंतजार है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने मूल्यांकन को लेकर हुई असहमति के आधार पर ऐसा नहीं किया था। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने 2014 में प्रस्ताव रखा कि वह बालको में अपनी 49 फीसदी हिस्सेदारी को नीलामी के जरिये बेचेगी। उसके चार साल बाद भी बालको की आधिकारिक वेबसाइट में यही कहा गया है कि ‘भारत सरकार ने वर्ष 2001 में स्टरलाइट इंडस्ट्रीज को 51 फीसदी हिस्सेदारी बेच दी थी और बाकी 49 फीसदी हिस्सेदारी अब भी सरकार के ही पास है।’
जब वेदांत ने केयर्न एनर्जी को खरीदा था तो केयर्न के राजस्थान स्थित तेलक्षेत्रों में 30 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाली सार्वजनिक कंपनी ओएनजीसी ने तमाम रॉयल्टी और शुल्कों के भुगतान संबंधी मौलिक करार को सिरे से खारिज कर दिया। इस वजह से विलय सौदे का पूरा मूल्यांकन ही व्यापक स्तर पर बदल गया। ओएनजीसी का पक्ष इसलिए मजबूत था कि उसके प्रमुख शेयरधारक भारत सरकार ने नई शर्तें स्वीकार किए जाने और मध्यस्थता की अपील को वापस लिए जाने तक वेदांत-केयर्न सौदे को मंजूरी ही नहीं दी। यह हितों के संघर्ष के बारे में अध्ययन का विषय हो सकता है।

कश्मीर में नाकामयाब रहा भाजपा-पीडीपी गठबंधन (Source :- दैनिक भास्कर)

कश्मीर में पीडीपी गठबंधन से भाजपा के अलग होने के साथ वहां विपरीत राजनीतिक ध्रुवों के बीच हुई मेल-मिलाप की अच्छी शुरुआत का खत्म होना दुर्भाग्यपूर्ण है। उससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण हैं कश्मीर के हालात। वहां हालात 1989 जैसे हो चले हैं। इसका दोष किसी एक पर नहीं है। अगर रमजान के पवित्र महीने में संघर्षविराम के दौरान अमन का रुख न दिखाने के लिए आतंकी और अलगाववादी दोषी हैं तो वार्ता के लिए राजनीतिक पहल न कर पाने के लिए केंद्र सरकार भी कम दोषी नहीं है। अकर्मण्यता के इस गुनाह में मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी शामिल हैं और पाकिस्तान तो चाहता ही रहा है कि उसे साथ लिए बिना कश्मीर में कोई सरकार वार्ता शुरू करने में कामयाब न हो। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि पीडीपी और भाजपा गठबंधन तो पहले ही बारूद के ढेर पर बैठा था जरूरत थी बस एक चिंगारी की और उसे लगाने का काम संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट ने कर दिया। भाजपा ने कश्मीर में अलगाववादियों की समर्थक समझी जाने वाली पीडीपी से गठबंधन बनाकर राजनीतिक उदारता का परिचय दिया था और महबूबा मुफ्ती के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने इसे अमन की पहल समझकर ही स्वीकार किया था।
मुफ्ती सईद से लेकर महबूबा तक सभी ने यह उम्मीद जताई थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जो व्यापक जनादेश मिला है, वे उसका सद्‌भावपूर्वक इस्तेमाल करके कश्मीर का दिल जीत लेंगे। दुर्भाग्य रहा कि मुफ्ती का 2016 में निधन हो गया और मोदी व महबूबा मिलकर कोई बड़ी पहल करने की बजाय भीतरी गांठों को ही खोलते रहे। कभी गोमांस, कभी अनुच्छेद 370 तो कभी अनुच्छेद 35 ए के बहाने गठबंधन में तनाव पैदा होता रहा। बुरहान बानी के मारे जाने के बाद तो जैसे कश्मीर के युवाओं पर हुर्रियत नेताओं और महबूबा की पार्टी का नियंत्रण ही जाता रहा। कठुआ की घटना से बने सांप्रदायिक माहौल ने तीन महीने तक पीडीपी और भाजपा के बीच जो खींचतान पैदा की वह भाजपा के नेताओं के लिए असह्य हो गई। कठुआ के साथ सख्त होती जा रही महबूबा के लिए ऑपरेशन ऑल आउट जैसी कार्रवाई को झेलना कठिन था। यही वजह है कि कश्मीर की कमान राज्यपाल के हाथों में है और एक बार फिर लोकतंत्र कश्मीर से दूर है।

Saturday 12 May 2018

रिश्तों की गांठ खोल सकता है प्रधानमंत्री का नेपाल दौरा (Source:- दैनिक भास्कर)

संपादकीय

उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी तीसरी नेपाल यात्रा में यह अच्छी तरह समझ सकेंगे कि भारत का यह पड़ोसी देश हमसे क्या चाहता है और नेपाल के कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली मोदी के समक्ष अपने देश और सरकार का मानस खोलकर रखेंगे। मोदी ने अपनी पहली यात्रा की तरह ही इस यात्रा को भी धार्मिक-सांस्कृतिक रंग देने की कोशिश की है। पहली यात्रा में उन्होंने पशुपतिनाथ में पूजा अर्चना की थी तो इस बार उन्होंने जानकी मंदिर में प्रार्थना के साथ और जनकपुर से अयोध्या की बस सेवा को हरी झंडी दिखाई। मोदी सरकार का लक्ष्य इस बस सेवा से भारत और नेपाल के सांस्कृतिक संबंधों की प्राचीनता को रेखांकित करना है। अयोध्या और जनकपुर के इस पौराणिक रिश्तों के आख्यान से जो लोग परिचित हैं वे यह भी जानते हैं कि सीता को आजीवन हुए कष्ट के कारण मिथिलावासी अपनी बेटी अवध में नहीं भेजना चाहते।

इसी पौराणिक ग्रंथि को आधुनिक संदर्भ में भारत और नेपाल के बीच सितंबर 2015 में हुई नाकेबंदी से जोड़कर देखा जाना चाहिए। नाकेबंदी नेपालियों ने ही की थी लेकिन, आरोप यही था कि यह सब भारत सरकार के इशारे पर हो रहा है। उससे आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति प्रभावित हुई और नेपाल भारत की बजाय चीन पर अधिक निर्भर हो गया। मोदी का नेपाल दौरा तब पड़ी गांठ को खोल सकता है। इस बीच भारत-नेपाल और चीन के बीच गलतफहमियां दूर करने के राजनयिक प्रयास तेज हुए हैं। पिछले महीने नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली भारत आए थे तो भारत के प्रधानमंत्री मोदी चीन गए थे। इस बीच नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप गयाली भारत का दौरा करने के बाद सीधे चीन गए। तब चीन के विदेश मंत्री वांग ही ने कहा था कि भारत और चीन के सहयोग का स्वाभाविक फायदा नेपाल को मिलना चाहिए। ऐसे में मोदी को चाहिए कि वे नेपाली प्रधानमंत्री ओली के समृद्धि के नारे को अर्थ प्रदान करें। इस काम को करने के लिए जल विद्युत परियोजनाएं, जलमार्ग परिवहन, रेलवे लाइनों का विस्तार जैसे कार्यक्रम शामिल हैं। मोदी की ही तरह ओजस्वी वक्ता और देश को नए-नए सपने दिखाने में माहिर ओली चाहते हैं कि समुद्र से कटे उनके देश का भी एक जहाजी बेड़ा हो, जिस पर नेपाल का ध्वज फहराता रहे। भारत को नेपाल से पौराणिक रिश्ता जोड़ने के साथ एक आधुनिक देश की इन भावनाओं को समझना होगा।

भारत-इंडोनेशिया तुलना (Source:- Business Standard )

टी. एन. नाइनन

यह बात एकदम जाहिर हो चली है कि भारत और चीन के बीच तुलना का कोई तुक नहीं है। ये दोनों देश भौगोलिक रूप से विशाल और अधिक आबादी वाले हैं, दोनों को दो सर्वाधिक तेज गति से विकसित होती अर्थव्यवस्था वाले देश माना जाता है, परंतु आर्थिक वृद्घि के मोर्चे पर वे बीते चार दशक में काफी अलग दायरे में रहे हैं। चीन की अर्थव्यवस्था का आकार भारतीय अर्थव्यवस्था का पांच गुना है।  चीन शक्ति के खेल में एक अलग ही दायरे में है जबकि भारत अपने पड़ोस तक में प्रभुत्व गंवा रहा है। तकनीक अधिग्रहण, शिक्षा की गुणवत्ता और गरीबी उन्मूलन के मोर्चे पर चीन हमसे बेहतर है। चुनौतियों से निपटने के मामले में भी उसकी स्थिति हमसे अच्छी है। यह अंतर बताता है कि कैसे अब दोनों देशों की तलाश एकदम जुदा है। चीन के पास मजबूत हथियार निर्माण कार्यक्रम है जबकि भारत रक्षा आयात के क्षेत्र में अग्रणी बना हुआ है। चीन चौथी औद्योगिक क्रांति की ओर मजबूती से बढ़ रहा है जबकि भारत को चीन के अतीत की कम मेहनताने वाले आयात की सफलता के उदाहरण से ही पार पाना है। चीन दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है और उसकी कुछ कंपनियां दुनिया में अव्वल हैं। भारत का आकार इस क्षेत्र में बहुत छोटा है। ऐसा नहीं है कि भारत के पास दिखाने के लिए कोई सफलता ही नहीं है लेकिन आर्थिक और ताकत के मामले में दोनों देश अलग-अलग क्षेत्र में हैं। शायद वक्त आ गया है कि दोनों देशों की तुलना का काम बंद किया जाए। चीन जहां अमेरिका को चुनौती दे रहा है, वहीं भारत में चीन से तुलना की जा रही है। अगर तुलना ही करनी है तो भारत की तुलना इंडोनेशिया से क्यों नहीं की जाती? अगर ऐसा किया गया तो महाशक्ति बनने की अपनी ही गढ़ी हुई छवि को नुकसान पहुंच सकता है। यह भारत की उन उपलब्धियों के साथ नाइंसाफी होगी जिन तक इंडोनेशिया पहुंच नहीं सका है।

 
परंतु प्रमुख मानकों पर इंडोनेशिया चीन से बेहतर तुलना लायक है। इंडोनेशिया की अर्थव्यवस्था 10 खरब डॉलर से अधिक की है और उसकी प्रति व्यक्ति आय 4,000 डॉलर के साथ भारत से दोगुनी है। हम शायद 2030 तक उस स्तर पर पहुंच सकेंगे। चीन की प्रति व्यक्ति आय तो 8,600 डॉलर है जो भारत की पहुंच से कोसों दूर है। इंडोनेशिया की आर्थिक वृद्घि दर 5 से 6 फीसदी के साथ काफी अच्छी है। उसकी आबादी भी बड़ी है, हालांकि वह भारत के पांचवें हिस्से के बराबर ही है। दोनों देशों में आबादी की वृद्घि की दर लगभग समान है। दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएं समान ढंग से चलती हैं। दोनों के पास बड़ा सार्वजनिक क्षेत्र है और उन्होंने बाजार के बजाय मूल्य नियंत्रण को तरजीह दी है। दोनों देश सुधार के पथ पर हैं और उन्होंने विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया है। दोनों की क्रेडिट रेटिंग लगभग समान है, हालांकि भारत वृहद आर्थिक संकेतकों पर बेहतर स्थिति में है। इंडोनेशिया अन्य मोर्चों पर बेहतर है। 
 
विश्व बैंक की कारोबारी सुगमता सूची में वह बेहतर स्थिति में है। भ्रष्टïाचार के मामले में भी उसकी स्थिति भारत से अच्छी है। सामाजिक रुझानों के मामले में भी दोनों देश एक दूसरे के समान है। हालांकि भारत की अधिकांश आबादी हिंदू और इंडोनेशिया की मुस्लिम है, परंतु इंडोनेशिया को एक ऐसा समाज माना जाता है जो व्यापक तौर पर जातीय और धार्मिक विविधता को लेकर सहिष्णु है। अलगाववादी आंदोलन दोनों देशों में लंबे समय से समस्या बने रहे। हाल के दिनों में धार्मिक विभाजन ने दोनों देशों में तनाव और हिंसा में इजाफा किया है। भारत की तरह इंडोनेशिया के समाज में भी धार्मिकता बढ़ रही है। वहां हिजाब पहनने वाली महिलाओं की तादाद बढ़ी है। भारत में भी राजनीति हिंदू बहुसंख्यकवाद की ओर केंद्रित है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संस्थागत नियंत्रण धीरे-धीरे बढ़ रहा है। विभिन्न समूहों का दखल भी बढ़ रहा है। इंडोनेशिया में धार्मिक पुलिस का गठन और रूढि़वादी धार्मिक नेताओं का उभार नजर आ रहा है जो खुद को नैतिकता का झंडाबरदार बताते हैं और इस्लामिक राज्य का प्रसार चाहते हैं। दोनों देशों के बीच अंतर भी है। इंडोनेशिया में बड़े राजनीतिक उतार-चढ़ाव और तीक्ष्ण आर्थिक घटनाएं नजर आई हैं। 
 
उसका लोकतांत्रिक इतिहास कहीं अधिक ताजा है। वहीं आर्थिक मोर्चे पर भारत गरीब जरूर है लेकिन उसका औद्योगिक और वित्तीय क्षेत्र अधिक विविध और विकसित है। दोनों के सामने विकास की एक समान चुनौतियां हैं: औद्योगीकरण, बुनियादी विकास, व्यापक असमानता से निपटना और गरीबी का मुकाबला करना आदि। यानी भले ही हमारी आकांक्षा चीन का संक्षिप्त लोकतांत्रिक संस्करण बनने की हो लेकिन हम शायद इंडोनेशिया का बड़ा लेकिन अधिक परिपूर्ण संस्करण बन सकते हैं।

Friday 11 May 2018

प्रारंभिक शिक्षा का बाजारीकरण, अनौपचारिक शिक्षा की लंबी अवधि अनावश्यक ही अधिक (Source:- दैनिक जागरण)

औपचारिक शिक्षा की किताबी पढ़ाई से पहले अनौपचारिक शिक्षा की लंबी अवधि अनावश्यक ही अधिक है

विशेष गुप्ता , (लेखक समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं)
इन दिनों देश के ज्यादातर हिस्सों में स्कूलों में दाखिलों का दौर चल रहा है। हर तरह के अच्छे स्कूलों में प्रवेश को लेकर मारामारी है। इनमें प्रीस्कूल भी शामिल हैं। बीते कुछ समय से अभिभावकों को प्रीस्कूलों में भी बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए खासी दौड़-धूप करनी पड़ती है। इतना ही नहीं उन्हें फीस के एवज में एक बड़ी रकम भी खर्च करनी पड़ती है। यह किसी से छिपा नहीं कि अब शहरी इलाकों के साथ-साथ किस तरह ग्रामीण इलाकों में भी प्री स्कूलों को खोलने की होड़ है। इस होड़ ने एक ऐसा माहौल बना दिया है कि बच्चों को प्लेग्रुप, नर्सरी, केजी आदि भेजना आवश्यक सा हो गया है। एक समय कच्चे एक-पक्के एक वाली व्यवस्था ने अब अनावश्यक विस्तार ले लिया है।
पिछले दिनों लर्निग ब्लॉक के एक सर्वे से यह बात सामने आई थी कि सरकारी शिक्षा धीरे-धीरे निजी स्कूलों की ओर खिसक रही है। बीते सालों में 22 लाख बच्चे सरकारी स्कूल छोड़कर प्राइवेट स्कूलों में चले गए। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब और उत्तराखंड समेत आठ राज्यों में निजी स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या में 40 से 50 फीसदी तक का इजाफा हुआ है। यदि निजी स्कूलों में नामांकन की यही रफ्तार बनी रही तो 2020 तक नामांकन की यह दर 55 फीसद तक पहुंच जाएगी। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के प्राथमिक सरकारी स्कूल केवल गरीब एवं पिछड़े परिवारों के बच्चों तक सीमित होकर रह गए हैं। इन विद्यालयों का शैक्षिक वातावरण शून्य हो गया है और शिक्षक शिक्षण कार्य के अलावा अन्य सभी काम करते दिखते हैं। सरकारी प्राथमिक शिक्षा के कमजोर तंत्र का फायदा निजी स्कूल उठा रहे हैं। यही वजह है कि प्राथमिक शिक्षा में अंग्रेजी शिक्षण संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई है और अनेक उद्यमी रातों रात शिक्षाविद कहलाने लगे हैं। अंग्रेजी स्कूलों की खासियत यह है कि वे औपचारिक शिक्षा की किताबी पढ़ाई शुरु होने से पूर्व अनौपचारिक शिक्षा पर आधारित हैं।
प्रीस्कूल पढ़ाई के स्तर को देखें तो ज्ञात होता है कि बच्चे की अनौपचारिक पढ़ाई के कई चरण हैं- प्लेग्रुप, एलकेजी और यूकेजी। अनौपचाारिक शिक्षा का यह प्रतिमान पश्चिम से चलकर भारत आया है। प्रीस्कूल अंग्रेजी शिक्षा का इतिहास बताता है कि इस शिक्षा का सिलसिला 18 वीं शताब्दी में औद्योगिक व्यवस्था के चलते कायम हुआ। ऐसे मातापिता जो फैक्ट्रियों में कार्यरत थे उनके परिवार बिल्कुल एकल थे। ऐसे परिवारों के बच्चों के लिए पालन पोषण और प्राथमिक शिक्षा का कोई उचित प्रबंध नहीं था। इस प्रकार के परिवारों के बच्चों के शारीरिक विकास और मानसिक विकास के लिए प्री स्कूलों का प्रबंध किया गया ताकि कार्यशील एकल परिवारों के बच्चों को इन स्कूलों में परिवार जैसा माहौल मिल सके और कामगार बच्चों की तरफ से निश्चिंत होकर अपना कार्य कर सकें। इसका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि पश्चिम में जन्मदर में गिरावट आनी शुरू हुई और आज तमाम देश ऐसे हैं जहां युवाओं के मुकाबले वृद्धों की संख्या अधिक होती जा रही है। चूंकि अब वहां वृद्ध भी वृद्धाश्रम की शरण ले रहे हैं इसलिए बच्चों के सामाजीकरण करने और उन्हें दुनियावी जिंदगी से रूबरू कराने वाला कोई बचा ही नहीं। इस सामाजिक और शैक्षिक टूटन का फायदा प्रीस्कूल शिक्षा ने खूब उठाया।
पश्चिम की तरह भारत में भी यह प्रीस्कूली शिक्षा फलफूल रही है। यह सिलसिला उदारीकरण की प्रक्रिया लागू होने के बाद ज्यादा तेज हुआ है। शहरों में ऐसे एकल परिवार तेजी से बढ़े हैं जिसमें पति-पत्नी, दोनों नौकरी करते हैं। ऐसे दंपती अकेले रहते हैं इसलिए बच्चों को प्रीस्कूली शिक्षा के हवाले करना बेहतर समझते हैं। चूंकि शहरों में यह एक चलन बन गया है कि बच्चों को औपचारिक शिक्षा से पहले अनौपचारिक शिक्षा दिलानी है इसलिए संयुक्त परिवारों में रह रहे दंपती बच्चों को प्री स्कूलों में भेजते हैं। इसके बदले उन्हें अच्छी-खासी फीस चुकानी पड़ती है। विडंबना यह है कि कोई भी इस पर सोचने-विचारने के लिए तैयार नहीं कि आखिर बच्चों को कक्षा एक में दाखिला लेने यानी औपचारिक शिक्षा के पहले प्री स्कूल जाना क्यों आवश्यक है और वह भी सालों-साल? किसी को यह समझ आना चाहिए कि यह सही नहीं कि बच्चों को औपचारिक शिक्षा दिलाने के पहले उन्हें इतना अधिक तैयार करने की जरूरत पड़े। कायदे से तो प्ले ग्रुप या फिर नर्सरी के बाद बच्चों को सीधे कक्षा एक जाना चाहिए।
प्री स्कूलों के फीस ढांचे का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि बच्चों का उठना-बैठना, खाना-पीना और थोड़ी बहुत अंक गणना सिखाने की बड़ी कीमत वसूली जा रही है। भारत जैसे देश में जहां अभी भी परिवार व्यवस्था है वहां प्रीस्कूली शिक्षा के एक उद्योग में तब्दील होने का कोई औचित्य नहीं। देखने में यह भी आ रहा है कि एकल कामकाजी परिवारों ने अपने बच्चों को इन प्री स्कूलों में भेजना शुरू तो कर दिया है, लेकिन किसी भी प्रकार का निगरानी तंत्र न होने से उन्हें यह नहीं पता चलता कि बच्चे का कितना विकास हो रहा है? एक समस्या यह भी है कि प्री स्कूल जाने वाले बच्चे समय से पहले मां-बाप के नैसर्गिक प्रेम से वंचित हो रहे हैं। बाल मनोविज्ञान कहता है कि पांच साल की उम्र बच्चों के विकास की सबसे संवेदनशील अवधि होती है। यह वह अवस्था होती है जब बच्चा परिवार और दुनियावी जिंदगी के बीच तालमेल बैठाता है।
भले ही प्री स्कूली संस्थाएं कामकाजी परिवारों के लिए एक सहारा बन रही हों, लेकिन उनका अनिवार्य होते जाना कोई शुभ संकेत नहीं। कहना कठिन है कि नई शिक्षा नीति तैयार करने वाले इस पर ध्यान देंगे या नहीं कि प्री स्कूली शिक्षा कितनी आवश्यक है? कम से यह तो आवश्यक नहीं होना चाहिए कि बच्चा औपचारिक शिक्षा हासिल करने जाने के पहले कई साल प्री स्कूलों में गुजारे और इसके बदले अभिभावक भारी-भरकम फीस खर्च करें। जो कार्य आजकल प्री स्कूल कर रहे हैं वह एक समय घर के बड़े-बुजुर्ग किया करते थे। एकल परिवारों के चलते अब ऐसा होना थोड़ा कठिन है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि प्री स्कूली शिक्षा के ढांचे पर कोई ध्यान न दे। यदि प्री स्कूल शिक्षा का बाजार बड़ा होता जा रहा है तो सामाजिक-शैक्षिक परंपरा में विचलन के कारण। जहां यह जरूरी है कि वर्तमान की प्रतिस्पर्धा को ध्यान में रखा जाए वहीं यह भी कि बाल मनोविज्ञान की अनदेखी न होने पाए।

बड़े जोखिम का सौदा (Source:- Business Standard)

एक दशक से जारी कोशिशों के बीच दुनिया की सबसे बड़ी खुदरा विक्रेता कंपनी ने 16 अरब डॉलर के सौदे के साथ भारतीय बाजार पर अपनी मजबूत पकड़ बना ली है। वॉलमार्ट के करीब 500 अरब डॉलर के वैश्विक राजस्व आधार के हिसाब से देखें तो तेजी से बढ़ते भारतीय ऑनलाइन खुदरा बाजार में 55 फीसदी हिस्सेदारी हासिल करने के लिए चुकाई गई यह रकम छोटी ही लगती है। यह सौदा इस लिहाज से भी अहम है कि वॉलमार्ट की प्रतिद्वंद्वी कंपनी एमेजॉन ने भारतीय बाजार में छह साल पहले दस्तक दी थी लेकिन अभी तक वह दूसरे स्थान पर ही है। सच है कि इस सौदे ने वॉलमार्ट को फर्राटा शुरुआत दे दी है और मजबूत प्रतिद्वंद्वी का मुकाबला करने के लिए उसके पास पर्याप्त संसाधन भी हैं। अभी तक वित्त की कमी के चलते फ्लिपकार्ट को एमेजॉन का मुकाबला करने में समस्या हो रही थी। असली सवाल यह है कि इस सौदे से वॉलमार्ट को किस तरह के वास्तविक लाभ हुए हैं?

फ्लिपकार्ट की 77 फीसदी हिस्सेदारी के लिए 16 अरब डॉलर का निवेश करने का मतलब है कि फ्लिपकार्ट का कुल मूल्य 21 अरब डॉलर आंका गया है जबकि एक साल पहले इसका मूल्य 10.5 अरब डॉलर था। एक साल के भीतर ही फ्लिपकार्ट के मूल्यांकन में इतनी अधिक बढ़ोतरी के पीछे वॉलमार्ट की भारतीय बाजार में प्रवेश और एमेजॉन की वैश्विक एकाधिकार को चुनौती देने की चाहत से जुड़ी कीमत भी शामिल है। हालांकि भारतीय खुदरा क्षेत्र की असलियत के बरअक्स इस प्रवेश रणनीति को परखने की जरूरत है। भारत का घरेलू ऑनलाइन खुदरा बाजार करीब 38.5 अरब डॉलर का है जो कुल खुदरा बाजार का महज पांच फीसदी ही है। फ्लिपकार्ट की बाजार हिस्सेदारी के हिसाब से देखें तो वॉलमार्ट ने भारतीय खुदरा बाजार का तीन फीसदी हिस्सा हासिल करने के लिए अच्छा-खासा प्रीमियम चुकाया है। ऐसा तब है जब भारतीय खुदरा बाजार दुनिया के शीर्ष दस में भी शामिल नहीं है।
वॉलमार्ट की चुनौती विरासत में मिले एक मसले से भी जुड़ी हुई है। पांच साल तक एमेजॉन के मुकाबले बढ़त बनाए रखने के बावजूद फ्लिपकार्ट 11 साल के अपने वजूद में मुनाफा कमाने में नाकाम रही है। पहले से ही घाटे में चल रही वॉलमार्ट ने भारत में मुनाफा कमाने की स्थिति में पहुंचने की न तो कोई समयसीमा तय की है और न ही यह बताया है कि वह कितना अतिरिक्त निवेश करेगी? संभव है कि दबदबा कायम करने की कोशिश में लगी वॉलमार्ट के लिए मुनाफा अधिक चिंता की बात नहीं होगी। लेकिन यह भी सही है कि खुदरा बाजार की प्रकृति बदल रही है और ऑनलाइन एवं भौतिक ढांचे के बीच सम्मिलन तेज हो रहा है। भारत में बिज़नेस-टू-कस्टमर (बी2सी) का भौतिक ढांचा तैयार कर पाना उसके लिए दूर की कौड़ी ही रहा है। वॉलमार्ट और दूसरी कंपनियां सरकार की अजीबोगरीब नीतियों की शिकार रही हैं जिसमें एकल एवं मल्टी ब्रांड खुदरा कारोबार को अलग-अलग देखा जाता रहा है। मल्टी ब्रांड खुदरा कारोबार में केवल 51 फीसदी विदेशी निवेश की ही इजाजत रहने से हालात चुनौतीपूर्ण रहे हैं।
इस सौदे से कुछ घरेलू ऑनलाइन खुदरा कंपनियों के खत्म हो जाने की आशंका भारत में कारोबार करने से जुड़ी चुनौतियों की तरफ भी इशारा करती है। गत वर्षों में ई-कॉमर्स क्षेत्र अस्थिर नीतियों के घेरे में रहा है। घरेलू ई-कॉमर्स उद्यमियों का ठीक से ख्याल नहीं रखा जाता रहा। बहरहाल दो दिग्गज कंपनियों के बीच चलने वाली प्रतिस्पद्र्धा के चलते ग्राहकों को कुछ समय तक डिस्काउंट की भरमार देखने को मिलेगी। यह सौदा भारतीय स्टार्टअप के लिए शून्य से शुरुआत कर अरबों डॉलर का निवेश जुटाने और भारी राशि पर बेच देने का सफर भी बयां करता है। लेकिन फ्लिपकार्ट से बंसल दोस्तों का बाहर होना यह भी दर्शाता है कि उदीयमान भारतीय उद्यमी आखिर में हार मान लेते हैं।

बढ़ता तापमान ही है असली तूफान (livehindustan.com)

अनिल प्रकाश जोशी (पर्यावरणविद्)

कभी मौसम का इंतजार किया जाता था। किसी भी मौसम का। भीषण सर्दी-गरमी के कष्ट अपनी जगह रहते थे, लेकिन ये मौसम भी जो देते थे, उसे याद रखा जाता था। अब मौसम डराते हैं। किस तरह डराते हैं, यह पिछले एक सप्ताह में हमने देख लिया। देश के 13 राज्यों में आंधी-तूफान के डर ने सड़कों को खाली कर दिया, स्कूलों में छुट्टी की घोषणा कर दी गई और आपदा राहत की एजेंसियों को तैयार रहने के लिए कहा गया। यह डर किसी अफवाह की वजह से नहीं था। इससे पहले दो मई को जब उत्तर भारत में धूल भरी आंधी के साथ तूफान आया, तो 130 से भी ज्यादा लोगों की जान गई थी। दहशत का कारण यह आंकड़ा भी था, लेकिन आशंकाएं निराधार नहीं थीं।
मौसम विभाग भी इसकी लगातार चेतावनी दे रहा था। यह हाल अकेला भारत का नहीं है।  मौसमी आपदाओं की अति दुनिया भर को परेशान करने लगी है। अमेरिका में हरीकेन ने टेक्सॉस व लूसियाना में पिछले वर्ष बड़ी तबाही मचाई थी, हजारों लोग बेघरबार हो गए थे। हाल ही में कैलिफोर्निया में बर्फीले तूफान ने बड़ा कहर ढाया। पर्यावरण बदलाव के साथ ही पूरी दुनिया में जो हो रहा है, उसे समझने की जरूरत है। सच यह है कि ये विभिन्न नामों के बवंडर प्रकृति से छेड़छाड़ का ही नतीजा हैं। पश्चिम एशिया और दक्षिण यूरोप में लूसीफर बवंडर उस बड़ी लू की ही देन था, जो इन क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के कारण चली थी।
हमें एक सरल सी बात समझ लेनी होगी कि तूफान तापक्रमों के अंतरों से पैदा होते और चलते हैं। मैदानों में उच्च तापमान और दूसरे इलाकों में निम्न तापमान का अंतर हवाओं का रुख बदलता है व उच्च तापमान के कारण रिक्तता को भरने के लिए हवाएं चलती हैं। जितना बड़ा यह अंतर होगा, उतना ही तेज तूफान व बवंडर होगा। हाल में ही आया बवंडर पाकिस्तान बॉर्डर के गांव नवाबशाह के उच्च तापमान के कारण बना था। वहां अप्रैल के अंत में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस पार कर गया था। इस तरह के तूफान को वैज्ञानिक भाषा में डाउन बस्र्ट भी कहते हैं और यही बवंडर राजस्थान, पंजाब व उत्तर प्रदेश में पहुंचने पर थंडर स्टॉर्म बना। इसी समय गरमी के कारण बंगाल की खाड़ी में उच्च तापक्रम में वाष्पोत्सर्जित हवा ने भी इस बवंडर का साथ दिया। यह पिछले 20 साल में सबसे बड़ा तूफान था।
दुनिया भर में घट रही ऐसी चरम मौसमी आपदाएं बड़े खतरों की ओर संकेत कर रही हैं। और इन सबके पीछे एक ही कारण है, धरती का बढ़ता तापमान। माना जाता है कि अगर तापमान इसी तरह बढ़ता रहा, तो इस सदी के अंत तक तापक्रम में नौ डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ोतरी हो जाएगी। डर यह है कि शायद उसके बाद वापसी असंभव होगी। इस बदलाव में एक बड़ा कारण वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का बढ़ता घनत्व भी है। अब दुनिया के सबसे बड़े देश अमेरिका को ही लीजिए, जहां वर्ष 1981 से 2016 के बीच में तापक्रम 1.8 डिग्री फारेनहाइट बढ़ा है। इस देश में टॉरनेडो से लेकर बर्फीले तूफान व बाढ़ ने पिछले कुछ दशकों से तबाही मचा रखी है। बढ़ता तापक्रम मात्र बवंडरों को जन्म नहीं दे रहा है, बल्कि इससे समुद्री तल में वर्ष 1880 के बाद से लगातार बढ़ोतरी हुई है। लगभग आठ इंच तक यह तल बढ़ चुका है। सब कुछ ऐसा ही रहा, तो वर्ष 2100 तक के अंत तक यह एक से चार फीट तक बढ़ जाएगा, क्योंकि ग्लेशियर पहाड़ों से चलकर समुद्र में पिघलते हुए पहुंच जाएंगे और समुद्रों में उच्च ज्वार-भाटा व समुद्री तूफान की आवृत्ति बढ़ जाएगी।
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के अनुसार, 1895 से आज तक सबसे ज्यादा गरम वर्ष दुनिया में 2016 ही रहा है। यही वह साल था, जब सभी तरह की त्रासदियों ने दुनिया को घेरा था। बढ़ते तापक्रम व जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में अनायास अंतर भी देखा जा रहा है और कभी अचानक तापमान का गिर जाना या मानसून का एहसास दिला जाना, इसी से जुड़ा है। धरती के बढ़ते तापक्रम का एक और पहलू है और वह है बज्रपात, यानी बिजली का गिरना। एक अध्ययन के अनुसार, अगर यही चलन रहा, तो इस सदी के अंत तक बज्रपात की रफ्तार 50 फीसदी बढ़ जाएगी, क्योंकि हर एक डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर बिजली गिरने की रफ्तार 12 फीसदी बढ़ जाती है।
बदलते जलवायु व तापमान को तूफान तक ही सीमित नहीं समझा जाना चाहिए, यह बर्फ पिघलने का भी सबसे बड़ा कारण बन गया है। एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1960 से 2015 तक उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया में जहां एक तरफ तेज रफ्तार से बर्फ पिघली है, तो वहीं दूसरी तरफ ऊंचे इलाकों में बर्फ जमने में लगभग 10 फीसदी की कमी आई है। जलवायु परिवर्तन का एक बड़ा असर इस रूप में भी सामने आया है कि पहाड़ों में बर्फ पड़ने के समय में भी एक बड़ा अंतर आ चुका है। हिमालय में बर्फ गिरने का उचित समय नवंबर-दिसंबर ही होना चाहिए, ताकि उसे जमने के लिए पर्याप्त समय मिल सके। जबकि जनवरी-फरवरी में पड़ी हुई बर्फ तत्काल पिघल जाती है। इस घटना को सरलता से नहीं लिया जा सकता, क्योंकि जहां एक तरफ बर्फ जमने में संकट आ चुका है, वहीं बढ़ते तापक्रम के कारण हिमखंडों के पिघलने की रफ्तार तेजी से बढ़ रही है और यह पूरी दुनिया में हो रहा है।
इन सब घटनाओं के शुरुआती संकेत 18वीं शताब्दी से ही मिलने शुरू हो गए थे, जब दुनिया में औद्योगिक क्रांति का जन्म हुआ। इसके ही बाद हम विकास के एक वीभत्स चक्रव्यूह में फंसते चले गए। आज हालात ये हैं कि कभी बवंडरों से या फिर बाढ़ से या फिर शीतलहर से दुबके पड़े हैं। इससे मुक्त होने का रास्ता अगर कहीं है, तो इन घटनाओं को समझने और इन पर सोचने का है, ताकि इससे निपटने की रणनीति तैयार की जा सके। वरना कभी एक बड़ा तूफान हमारे सामने खड़ा होगा।

महाबली की मनमानी (Source:- जनसत्ता)

संपादकीय

ईरान को परमाणु बम बनाने से रोकने के लिए अमेरिका ने मित्र देशों के साथ मिल कर ईरान से जो करार किया था, उससे वह पीछे हट गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने संयुक्त कार्यवाही के लिए कार्ययोजना यानी जेसीपीओए से अलग होने और ईरान पर फिर से प्रतिबंध थोपने का जो एकतरफा फैसला किया है, उससे वैश्विक समुदाय सकते में है। ट्रंप का यह कदम दुनिया को नए तनाव में झोंकने वाला है। ईरान भी अमेरिका की कार्रवाई से बौखलाया है। इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों में अमेरिका के अलावा ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, रूस और जर्मनी और यूरोपीय संघ शामिल थे। करीब डेढ़ दशक तक ईरान के साथ तनावपूर्ण रिश्तों और वार्ताओं के कई दौर के बाद यह करार हो पाया था। ट्रंप ने ईरान को कट्टरपंथी देश बताते हुए सीरिया में युद्ध भड़काने का आरोप लगाया है। ट्रंप का कहना है कि ईरान समझौते का पालन नहीं कर रहा है। हालांकि ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, चीन और जर्मनी ने अमेरिका के इस कदम से असहमति जताई है और ईरान के साथ हुए समझौते को जारी रखने का फैसला किया है। ट्रंप ने ईरान को लेकर जो हठधर्मिता भरा रुख दिखाया है, वह नए खतरे की आहट है। साफ है कि ट्रंप का यह कदम ईरान को घेरने की तैयारी है।
अमेरिका और ईरान के बीच जिनेवा में 2015 में हुए इस समझौते का मकसद ईरान का परमाणु कार्यक्रम सीमित करना था। यानी शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए तो ईरान के परमाणु रिएक्टर चलें, लेकिन परमाणु बम नहीं बनाया जाए। यह समझौता ईरान को घेरने का बड़े देशों का अभियान था। अमेरिका और ईरान के रिश्ते दशकों तक तनावपूर्ण रहे और इस दौरान दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध भी नहीं रहे। समझौता न करने की वजह से ईरान को वर्षों कड़े आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। इस समझौते के तहत ईरान को अपने उच्च संवर्धित यूरेनियम भंडार का अट्ठानबे फीसद हिस्सा नष्ट करने और मौजूदा परमाणु सेंट्रीफ्यूज में से दो तिहाई को भी हटाने की बात थी। समझौते में कहा गया था कि संयुक्तराष्ट्र के निरीक्षक ईरान के सैन्य प्रतिष्ठानों की निगरानी करेंगे। इसके अलावा ईरान के हथियार खरीदने पर पांच साल और मिसाइल बनाने पर प्रतिबंध आठ साल तक रहना था। समझौते पर हस्ताक्षर के बदले ईरान को तेल और गैस के कारोबार, वित्तीय लेन-देन, उड्डयन और जहाजरानी के क्षेत्र में लागू प्रतिबंधों में ढील देने की बात कही गई थी।
लेकिन ट्रंप के फैसले से सारा गणित पलट गया है। ईरान के साथ समझौते को लेकर सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों में जैसी गुटबाजी हो गई है, वह वैश्विक राजनीति के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इससे नए समीकरण बनेंगे। चीन और रूस तो शुरू से ही ईरान के साथ हैं। पर ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और यूरोपीय संघ ने समझौता जारी रख कर अमेरिका को यह संदेश दिया है कि हर मुद्दे पर उसकी हां में हां मिलाना संभव नहीं है। इसे ईरान को इन देशों का मजबूत समर्थन ही माना जाना चाहिए। ईरान ने भी इन देशों के साथ समझौता बनाए रखने की बात कही है। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजंसी ने भी कहा है कि ईरान में 2009 के बाद से परमाणु हथियार विकसित करने की गतिविधियों के कोई संकेत नहीं मिले हैं और ईरान समझौते के हिसाब से काम कर रहा है। ऐसे में समझौते से अमेरिका का हटना वाजिब नहीं कहा जा सकता।

लोकपाल

A लोकपाल    लोकपाल चर्चा   में   क्यों   है ? हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष (पी.सी. घोष) ...