Friday 29 June 2018

PRESIDENT OF INDIA INAUGURATES “UDYAM SANGAM-2018”

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PRESIDENT OF INDIA INAUGURATES “UDYAM SANGAM-2018”

INDIA SEYCHELLES TO JOINTLY DEVELOP ‘ASSUMPTION ISLAND NAVAL BASE’

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INDIA SEYCHELLES TO JOINTLY DEVELOP ‘ASSUMPTION ISLAND NAVAL BASE’

हिंद महासागर में चीन को जवाब (Source:- LiveHindustan.com)

अभिजीत सिंह (सीनियर फेलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन)
एजम्पशन आइलैंड पर नौसैनिक अड्डा बनाने को लेकरभारत और सेशेल्स के बीच बनी सहमति सामरिक नजरिये से काफी अहम है। यह सही है कि 2015 का यह समझौता इस साल संशोधित किए जाने के बाद भी वहां की संसद की मंजूरी नहीं पा सका है। मगर दोनों देश एक-दूसरे के हितों को देखते हुए आपस में मिलकर इस नौसैनिक अड्डे पर काम करने को लेकर सहमत हुए हैं, जो सुकूनदेह है। इसे सेशेल्स के राष्ट्रपति डैनी फॉर के भारत दौरे की ‘बेस्ट पॉसिबल आउटकम’ कहा जा रहा है, यानी सबसे अच्छा संभावित नतीजा। मौजूदा स्थिति में इससे बेहतर परिणाम नहीं निकल सकता था। अगर यह समझौता रद्द हो जाता (जिससे जुड़ी रिपोर्ट कुछ दिनों पहले खबरों में आई थी), तो हमें खासा नुकसान हो सकता था। मगर अब उम्मीद बंधी है कि अगले चुनाव में सेशेल्स के मौजूदा राष्ट्रपति यदि और अधिक प्रभावी तरीके से सत्ता में आते हैं, तो यह समझौता वहां की संसद की रजामंदी पा सकता है।
इस नौसैनिक अड्डे को लेकर भारत की उत्सुकता और सेशेल्स की झिझक को समझना मुश्किल नहीं है। चीन इसकी एक बड़ी वजह है। उसका प्रभाव हिंद महासागर में लगातार बढ़ रहा है। यहां पहले भारत प्रभावी भूमिका में था और चीन दक्षिण चीन सागर में। मगर अब हिंद महासागर में चीन की दखल के बाद क्षेत्र की राजनीतिक व सामरिक तस्वीर पूरी तरह बदल गई है। उसने पूर्वी अफ्रीकी देश जिबूती में अपना सैन्य अड्डा तो बना ही लिया है, ग्वादर (पाकिस्तान) और हम्बनटोटा (श्रीलंका) बंदरगाह भी अपने खाते में झटक लिए हैं। इस बदलते घटनाक्रम से नई दिल्ली का चिंतित होना लाजिमी है। इस लिहाज से हमारे लिए एजम्पशन आइलैंड उम्मीद की एक बड़ी किरण है। यहां यदि नौसैनिक अड्डा बनकर तैयार हो जाता है, तो यह चीन को करारा जवाब देने जैसा होगा। मगर दुर्भाग्य से, चीन के दबाव के कारण ही सेशेल्स फिलहाल उलझन में दिख रहा है।  दरअसल, साल 2004 के बाद से सेशेल्स में चीन का निवेश काफी बढ़ गया है। और जिस तरह हिंद महासागर में भारत व चीन की स्पद्र्धा चल रही है, उसमें सेशेल्स, मॉरिशस, मालदीव जैसे आस-पास के तमाम छोटे-बड़े देश व आइलैंड खुलकर सामने आने से कतरा रहे हैं।
वे भारत को खुलेआम समर्थन देकर चीन की नाराजगी नहीं मोल लेना चाहते। एक दिक्कत यह भी रही कि कुछ सामरिक पंडित ने एजम्पशन आइलैंड के नौसैनिक अड्डे को इस रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया था, मानो यह अड्डा भारत का होगा और यहां से चीन के जहाजों पर नजर रखी जाएगी। इस अति-उत्साह ने भी सेशेल्स को अभी आगे बढ़ने से रोका है। अगर वह यह कहता कि नौसैनिक अड्डा भारत ही बनाएगा, तो भारत-चीन प्रतिस्पद्र्धा में संभवत: वह भी हिस्सा बनता दिखता। हालांकि अब भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है। अच्छी बात यह है कि सेशेल्स से हमारे रिश्तों में खटास नहीं आई है। लिहाजा भविष्य के लिए हम सकारात्मक भरोसा रख सकते हैं।
भारत और सेशेल्स के बीच बनी ताजा सहमति भी हमारे लिए कम फायदेमंद नहीं है। संयुक्त नौसैनिक अड्डा हिंद महासागर में हमारी सामरिक ताकत बढ़ाएगा। यहां भारत को घेरने के लिए चीन की विस्तारवादी नीतियां अपनी गति से चल रही हैं। आलम यह है कि उसकी पनडुब्बियां कभी-कभी दक्षिण एशियाई सागर में भी आ जाती हैं और हम उसे पकड़ नहीं पाते। हालांकि इसकी वजह तकनीक और साजो-सामान के मामले में हमारा चीन से कमतर होना भी है। मगर सेशेल्स का नौसैनिक अड्डा बनता है और भारत की मौजूदगी वहां बढ़ती है, तो इस महासागर में चीन की दखल पर हमारी नजर बनी रहेगी। यह सही है कि चीन को ‘काउंटर’ करने के लिए हमारे पास जितने पत्ते होने चाहिए, उतने नहीं हैं।
हमारा प्रयास मालदीव और मेडागास्कर जैसे राष्ट्रों से रिश्ता बढ़ाकर भी उसे रोकने का रहा है, जिसमें हमें सफलता नहीं मिल पाई। फिर चीन का इन देशों पर आर्थिक व राजनीतिक प्रभाव भी खासा है। इस लिहाज से देखें, तो सेशेल्स से समझौता हो पाना ही अपने-आप में बड़ी उपलब्धि है। हिंद महासागर में चीन से एक और चुनौती हमें ‘वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव’ के रूप में मिल रही है। इसके तहत महासागरीय क्षेत्र में भी तमाम तरह के निवेश किए जा रहे हैं। इसकी काट के लिए हम अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर एक ‘चतुष्कोणीय’ गुट बनाने को तत्पर हैं। यह एक राजनीतिक समूह तो होगा ही, इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए भी इसका अस्तित्व काफी मायने रखेगा। एक संयुक्त क्षेत्रीय ढांचागत स्कीम तैयार करने पर चारों देश विचार कर रहे हैं। अगर यह साकार हो जाता है, तो हम चीन को कई मामलों में चुनौती दे सकेंगे।
हालांकि वुहान में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्राध्यक्ष शी जिनपिंग की ‘अनौपचारिक मुलाकात’ से एक संदेश यह भी निकला कि भारत अब चीन के साथ एक स्थिर संबंध बनाने को लेकर अपनी ओर से रुचि दिखा रहा है। इसने ‘चतुष्कोणीय’ गुट की बुनियाद थोड़ी कमजोर की है। हालांकि मेरा मानना है कि जब तक इस चौकड़ी के बहाने हम राजनीतिक और सामरिक संबंधों को गति नहीं देंगे, हिंद महासागर में चीन की बढ़ती चुनौती का प्रभावी जवाब शायद ही दे पाएंगे। हमें अपनी उस ‘नेबरहुड पॉलिसी’ (पड़ोसी देशों को खास तवज्जो देने की नीति) को भी नई धार देनी होगी, जिसकी तरफ 2015 में कदम बढ़ाए गए थे। यह न सिर्फ हिंद महासागर क्षेत्र के लिए, बल्कि दक्षिण एशिया के लिहाज से भी किया जाना जरूरी है। आज भूटान, नेपाल जैसे हमारे करीबी पड़ोसी देश भी चीन के पाले में जाते दिख रहे हैं। हमें उन्हें समझाना होगा कि चीन या अमेरिका की तुलना में, भारत के साथ रिश्तों को मजबूती देना उनके लिए कहीं ज्यादा फायदेमंद है।

कूटनीतिक हासिल (Source:- जनसत्ता)

आखिरकार भारत एजम्पशन द्वीप में नौसैनिक अड्डा बनाने देने के लिए सेशेल्स को राजी करने में सफल हो गया। यह भारत की एक अहम कूटनीतिक उपलब्धि है। इसकी अहमियत का अंदाजा हिंद महासागर में चीन की बढ़ती पैठ को ध्यान में रख कर ही लगाया जा सकता है। चीन जिबूती बेस के जरिए हिंद महासागर में अपनी गतिविधियां बढ़ा चुका है। भारत और सेशेल्स के बीच बनी सहमति चीन की इसी सक्रियता की काट निकालने की कोशिश है। अगर इसके लिए सेशेल्स को भारत राजी नहीं कर पाता, क्या पता कल वह चीन या फ्रांस को नौसैनिक अड्डा बनाने की मंजूरी दे देता। यों सेशेल्स से भारत की नजदीकी तभी बढ़ गई थी जब 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां गए थे। तभी नौसैनिक अड्डा बनाए जाने के प्रस्ताव पर सहमति बन गई थी। यही नहीं, सेशेल्स के सैनिकों को प्रशिक्षण और सैन्य सामग्री की आधी से अधिक आपूर्ति भारत ही करता रहा है। पर नौसैनिक अड्डे के लिए सेशेल्स को रजामंद कर पाना भारत के लिए आसान नहीं था, क्योंकि वहां का विपक्ष इस प्रस्ताव के खिलाफ था। और, विपक्ष के तीखे विरोध को देखते हुए राष्ट्रपति डैनी फॉर ने भारत का प्रस्ताव रद्द कर दिया था। इसे भारत की हार और चीन की जीत के रूप में देखा गया।
कुछ दिन पहले तक भारत के लिए स्थिति निराशाजनक थी। हाल में डैनी फॉर ने कह दिया था कि जब वे भारत जाएंगे तो एजम्पशन आइलैंड में नौसैनिक अड्डा बनाने के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी के साथ कोई बातचीत नहीं करेंगे। लेकिन आखिरकार भारत ने हारी हुई बाजी पलट दी। भारत ने कोई नाराजगी दिखाने के बजाय सेशेल्स से सहयोग और सदाशयता का व्यवहार जारी रखा, और उसे बतौर उपहार एक विमान तटीय निगरानी के लिए दिया। इससे सेशेल्स के राजनीतिक नेतृत्व का विश्वास अर्जित करने में भारत को सफलता मिली और फॉर के दिल्ली आने पर भारत का मंसूबा एक द्विपक्षीय सहमति में बदल गया। जाहिर है, भारत के प्रति सेशेल्स का ताजा रुख चीन को रास नहीं आया होगा। डैनी फॉर के साथ सुरक्षा समेत विभिन्न मुद्दों पर चर्चा के बाद मोदी ने सेशेल्स को छह सौ इक्यासी करोड़ रुपए कर्ज देने का भी एलान किया। फॉर ने कहा कि इससे सेशेल्स के बुनियादी सैन्य ढांचे को मजबूत बनाने में मदद मिलेगी; इस कर्ज से हम नए सरकारी भवन, पुलिस मुख्यालय और महान्यायवादी कार्यालय का निर्माण करेंगे। इस मौके पर भारत और सेशेल्स के बीच छह समझौतों पर हस्ताक्षर हुए, जो कि साइबर सुरक्षा, समुद्री सुरक्षा और बुनियादी ढांचा विकास आदि से संबंधित हैं। समुद्री सुरक्षा के तहत महासागरीय क्षेत्रों में मौजूद असैन्य वाणिज्यिक पोतों की पहचान और आवाजाही संबंधी सूचनाएं साझा की जाएंगी।
डैनी फॉर के साथ वार्ता के बाद मोदी ने कहा कि भारत सेशेल्स की रक्षा क्षमता बढ़ाने और समुद्री बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने के लिए वचनबद्ध है। भारत और सेशेल्स प्रमुख सामरिक सहयोगी हैं और हिंद महासागर में शांति, सुरक्षा और स्थिरता कायम करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। आगे उन्होंने कहा कि दोनों देश समुद्री लूट, नशीले पदार्थों की तस्करी, मानव तस्करी और समुद्री संसाधनों का अवैध तरीके से दोहन जैसे अंतरराष्ट्रीय अपराधों का सामना कर रहे हैं। भारत और सेशेल्स मिल कर इन चुनौतियों से पार पाने की कोशिश करेंगे। भारत और सेशेल्स के बीच एजम्पशन परियोजना पर काफी समय से बातचीत चलती रही है, मगर जमीन पर कुछ नहीं हो पाया। देखना है अब यह परियोजना कब मूर्त रूप लेती है ।

अहम शक्ति बनने के लिए जरूरी हैं समुद्री क्षमताएं (Source:- Business Standard)

अगले दो दशक में दुनिया की प्रमुख ताकत बनने के लिए यह आवश्यक है कि भारत समुद्री क्षेत्र में गहरी क्षमताएं विकसित करे।

प्रेमवीर दास , (लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं। प्रस्तुत विचार पूरी तरह व्यक्तिगत हैं।)
इन दिनों हर तरफ समुद्री सुरक्षा की चर्चा चल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका यात्रा के दौरान वहां के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से जो बातचीत की उसके बाद ऐसी चर्चाओं का सिलसिला शुरू हुआ जिनसे यह बोध हुआ कि भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में हित वाला एक प्रमुख समुद्री क्षेत्र बन सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फ्रांस के राष्ट्रपति एमानुअल मैक्रां के साथ बातचीत के दौरान और फिर आसियान देशों के प्रमुखों के साथ चर्चा में भी समुद्री सुरक्षा का मुद्दा प्रमुख रहा। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के साथ बातचीत में भी इस विषय पर चर्चा हुई।
अभी हाल ही में इंडोनेशिया, मलेशिया और सिंगापुर में और सैद्घांतिक तौर पर सामरिक महत्व के शांग्रीला संवाद में अपने वक्तव्य में मोदी ने देश के इर्दगिर्द के समुद्री क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर चिंता जाहिर की। इतना ही नहीं उन्होंने सिंगापुर में विशेष रूप से तैनात भारतीय युद्घपोत पर अमेरिकी रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस का स्वागत भी किया। अगर कोई साधारण व्यक्ति इस परिदृश्य पर दृष्टिï डाले तो उसे लगेगा कि भारत बहुत तेजी से उपमहाद्वीपीय भूक्षेत्र वाले शक्तिशाली राष्ट्र से समुद्री क्षमता संपन्न देश बनने की ओर अपनी रुचि बढ़ा रहा है। परंतु जमीनी हकीकत एकदम अलग है।
हमारा रक्षा बजट 27.4 खरब रुपये का है जो जीडीपी के प्रतिशत के हिसाब से अब तक का न्यूनतम है। नौसेना को इसमें से 14 फीसदी राशि आवंटित होती है। ऐसे में तो हम हिंद महासागर क्षेत्र के आसपास ही बहुत प्रभावी नहीं रह पाएंगे, एशिया-प्रशांत क्षेत्र की तो बात दूर ही है। हां, एक या दो युद्घपोतों से यदाकदा मित्रतापूर्ण यात्राएं की जा सकती हैं और मित्र नौसेनाओं की मदद से कुछ युद्घाभ्यास किए जा सकते हैं। यहां तक कि मालाबार जैसा बड़ा सैन्याभ्यास भी किया जा सकता है लेकिन इससे हम बड़ी समुद्री शक्ति नहीं बन जाएंगे।
ताजातरीन रक्षा बजट के केवल 14 फीसदी के साथ नौसेना नकदी की कमी से जूझ रही है और समूचे हिंद महासागर क्षेत्र के लिए तैयार नहीं है। हिंद-प्रशांत तो दूर की बात है। रक्षा नीतिकारों को यह समझना होगा। अगर हमें उपरोक्त लक्ष्यों को हासिल करना है तो हमें सामरिक रुझान को देखते हुए अपना निवेश बढ़ाना होगा और अगर हम उस दिशा में बढ़ते हैं तो दो मोर्चों पर युद्घ की तैयारी जैसी बातें तत्काल हमारी राह रोक लेती हैं। क्षमताओं के साथ ऐसा कोई भी समझौता नौसेना की हिस्सेदारी को हमेशा सीमित रखेगा और इस तरह प्रधानमंत्री के सपनों का हकीकत में बदलना दूरी की कौड़ी बना रहेगा।
15 साल पहले रक्षा बजट में नौसेना की हिस्सेदारी 18 फीसदी थी और उसके जल्दी 20 फीसदी होने की उम्मीद थी। उसके लिए हमारी जमीनी सीमा पर आक्रमण होने और घरेलू स्तर पर पनपने वाले किसी भी तरह के विद्रोह का पुनर्आकलन होना था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। चूंकि थल सेना की हिस्सेदारी पहले जैसी बरकरार है इसलिए भारतीय सशस्त्र बलों को वह मिलता रहेगा जो वे पिछले छह दशक से पाते रहे हैं। इस तरह समुद्री शक्ति बनने की चर्चा केवल बातों में रह जाएगी। लब्बोलुआब यह है कि मौजूदा विचार प्रक्रिया के मुताबिक समुद्री क्षमता बढ़ाने की भारत की जोर नहीं पकड़ पाएगी और अपेक्षाकृत दूर बनी रहेगी।
अमेरिका की कोशिश हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर ध्यान देने की है और इसे समझा जा सकता है। देर से सही लेकिन यह चीन द्वारा पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में उठाए जा रहे कदमों के प्रति सीधी प्रतिक्रिया है। वह चीन को दक्षिणी चीन सागर के स्पार्टली द्वीप में यानी ऐसे इलाके में विमानन परिचालन सुविधा कायम करने से रोकना चाहता है जो साफ तौर पर उसका भूभाग नहीं है। इस बीच क्षेत्र में अपनी पहुंच बढ़ाने के क्रम में अमेरिका कई क्षेत्रीय देशों को अपने पाले में करना चाहता है। जापान और ऑस्ट्रेलिया तो पहले से ही उसके पाले में हैं जबकि भारत उनमें ताजातरीन है।
भारत की नीति इस क्षेत्र में सक्रिय रहने की हो सकती है लेकिन अगर वह इस क्षेत्र की एक अहम ताकत बनना चाहता है तो उसे समुद्र में विश्वसनीय क्षमता दिखानी होगी। खासतौर पर हिंद महासागर क्षेत्र में। जैसा कि हमने पहले कहा अभी उसके पास ऐसी क्षमता नहीं है और भविष्य में भी ऐसा तब तक नहीं होगा जब तक कि हम अपनी सोच में परिवर्तन नहीं लाएंगे। हमें भू सीमाओं प्रति अपने लगाव को परे करना होगा। भू सीमाओं पर शत्रु के आक्रमण और कब्जे की आशंकाओं में कुछ दशक पहले तक दम था लेकिन बीते कुछ वर्षों में हालात नाटकीय अंदाज में बदल गए हैं। हम सभी इस बात को अच्छी तरह समझते भी हैं। संक्षेप में कहें तो हम जो कहते हैं उसमें और हमारी क्षमताओं में बहुत अधिक अंतर है।
हमारी आकांक्षाओं को परिणाम में बदलने के लिए भारत को खुद को पारंपरिक उपमहाद्वीपीय शक्ति से एक मजबूत समुद्री शक्ति में बदलना होगा। अगर हमें अगले 20 वर्ष में दुनिया की शीर्ष चार-पांच ताकतों में से एक बनना है तो हमें समुद्री क्षमताओं के विकास पर काफी ध्यान देना होगा। पश्चिमी ताकतों की बात करें तो वे ऐतिहासिक रूप से समुद्री शक्ति वाले देश रहे हैं और अब तो चीन भी यह स्वीकार कर चुका है कि कोई देश तब तक बड़ी शक्ति नहीं बन सकता है जब तक कि उसने समुद्री क्षेत्र में अपनी क्षमताओं को साबित नहीं कर दिया हो। इसीलिए चीन पूर्वी और दक्षिणी चीन सागर में आक्रामक भूमिका में नजर आ रहा है और उसने हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी क्षमताएं विकसित की हैं। उसकी युद्घपोत निर्माण परियोजना बहुत तेज गति से चल रही है और उसने केवल पांच साल में विमान वाहक पोत तैयार किया है। इससे भी पता चलता है कि वह लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में किस गति से बढ़ रहा है। हमारे पास वक्त बहुत कम है।
हमारे देश में सुरक्षा की स्थिति तेजी से बदल रही है। अब हमें दुनिया में शीर्ष तीन-चार शक्तियों में से एक बनना होगा। इसके लिए हमें राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य क्षमता विकसित करनी होगी। हमारे सशस्त्र बलों के आकार पर नए सिरे से नजर डालने का वक्त है। इसलिए नहीं कि इससे अगले कुछ सालों में कोई बड़ा बदलाव आने वाला है बल्कि इसलिए क्योंकि बिना इसके हम वहां नहीं पहुंच सकेंगे जहां हमें अब से दो दशक बाद होना चाहिए। इस लिहाज से देखें तो मौजूदा सरकार और प्रधानमंत्री ने अपनी बात कहकर शुरुआत कर दी है। परंतु केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है। अब वक्त आ गया है कि बातों पर अमल किया जाए।

Wednesday 20 June 2018

UNITED STATES WITHDRAWS FROM UNHRC AS CRITICISM MOUNTS OVER BORDER POLICY

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UNITED STATES WITHDRAWS FROM UNHRC AS CRITICISM MOUNTS OVER BORDER POLICY

INDIA & ITALY AGREE TO REVITALISE BILATERAL TIES

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INDIA & ITALY AGREE TO REVITALISE BILATERAL TIES

अलविदा कह चुके जी-7 की जगह कौन लेगा (Source:- Livehindustan.com)

कभी पश्चिमी उदारवादी व्यवस्था में सबसे ऊंची हैसियत पाने वाला जी-7 दम तोड़ चुका है। इसकी हत्या किसी बाहरी दुश्मन ने नहीं की, बल्कि अपने क्रोध में इसके जनक ने ही इसकी जान ली है। इस संगठन में कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन और अमेरिका शामिल हैं। जून के पहले पखवाड़े में इसका शिखर सम्मेलन कनाडा में हुआ था, जहां अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस पर ऐसा विनाशकारी वार किया, जो पहला तो नहीं था, पर प्राणघातक जरूर साबित हुआ। 1970 के दशक में गठित इस समूह के दो उद्देश्य रहे हैं। पहला, आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा मतभेदों से निपटना और सदस्यों पर आए संकटों का निपटारा करना। और दूसरा, पश्चिमी लोकतांत्रिक व उदारवादी आर्थिक व्यवस्था का विश्व पर प्रभुत्व जमाना।  हालांकि 1996-97 के एशियाई आर्थिक संकट ने वैश्वीकरण की चुनौतियों का सामना करने की इसकी सीमाओं को बेपरदा कर दिया और दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं के संगठन जी-20 के गठन की बुनियाद तैयार की। 1997 में रूस को जी-7 में शामिल करने का फैसला लिया गया, जो समूह के दो बुनियादी सिद्धांतों के विपरीत था।
पहला, चीन और भारत की तुलना में छोटी अर्थव्यवस्था वाला देश रूस तब दुनिया की शीर्ष 10 अर्थव्यवस्थाओं में शामिल नहीं था। और दूसरा, इसका लोकतंत्र कसौटी पर पूरी तरह खरा नहीं माना जाता था। इस तरह, जी-8 भू-आर्थिकी नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक वजहों से साकार हुआ, जिसने इसके साझा उद्देश्य को भी कमजोर किया। 2014 में रूस को इससे निष्कासित करने का फैसला भी भू-राजनीतिक वजहों से ही उचित ठहराया गया था। रही-सही कसर 2008 की आर्थिक मंदी ने पूरी की, जो जी-8 की कुछ नीतियों की ही देन थी। मंदी ने जी-20 को अधिकार संपन्न बनाया, जो कम से कम भू-आर्थिकी की चुनौतियों से पार पाने में कहीं अधिक बेहतर था। आज कुल वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में जी-7 देशों की हिस्सेदारी 47 फीसदी के करीब है। इसके पांच देश (अमेरिका, जर्मनी, जापान, ब्रिटेन और फ्रांस) ही शीर्ष सात आर्थिक ताकतों में शामिल हैं। इटली व कनाडा को चीन व भारत ने पीछे धकेल दिया है। जी-7 की मौत पर ज्यादा आंसू बहने की संभावना नहीं है। उम्मीद है, इसका पुनरोद्धार हो या कई दूसरे गुट हम बनते हुए देखें। पहला रास्ता यह है कि जी-20 को जी-7 की जगह मिल जाए। यह बदलाव तभी प्रभावी होगा, जब मूल उद्देश्य वित्तीय और आर्थिक संकटों का तत्काल निपटारा हो।
हालांकि इसने भी यदि भू-आर्थिकी के मुद्दों से निपटना व लोकतांत्रिक उदारवादी व्यवस्था को बरकरार रखना मूल उद्देश्य बनाए रखा, तो जी-20 अनुपयुक्त साबित होगा। इसके कई सदस्य देश लोकतंत्र की अवधारणा पर खरे नहीं उतरते और उनमें भू-आर्थिकी के हित भी टकरा रहे हैं। दूसरा विकल्प जी-7 में सुधार का है, जो सिर्फ देश की अर्थव्यवस्था के आकार पर आधारित हो। संशोधित जी-7 में चीन और भारत भी शामिल हो सकेंगे तीसरा विकल्प ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) के आसपास जी-6 बनाने का हो सकता है। विश्व जीडीपी में करीब 30 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले ब्रिक्स देश आज शीर्ष 10 अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हैं। हालांकि अमेरिका के बिना, जिसकी वैश्विक अर्थव्यवस्था में लगभग 24 फीसदी हिस्सेदारी है, इस गुट का भू-आर्थिकी प्रभाव सीमित रहने की संभावना है। एक विकल्प सात देशों का एक नया समूह भी सकता है, जिसमें ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, यूरोपीय संघ, भारत, जापान और दक्षिण कोरिया शामिल हों। इन सबकी वैश्विक जीडीपी में करीब 40 फीसदी की हिस्सेदारी है और यह बड़ी आर्थिक ताकतों व उदारवादी वैश्विक व्यवस्था, दोनों का प्रतिनिधित्व करेगा। हालांकि यूरोपीय संघ की खस्ता हालत और अमेरिका के साथ बाकी के सदस्य देशों के आर्थिक व सुरक्षा संबंध इस विकल्प को शायद ही हकीकत बना सकें। लब्बोलुआब यही है कि नए जी-7 के उभरने की पूरी संभावना है, चाहे रास्ता जो भी हो।

सरकारी कुप्रबंधन का ही नमूना है एयर इंडिया (Source:- Business Standard )

अधिकांश देशों में संप्रभु शक्ति के साथ कॉर्पोरेट क्षेत्र के साझा स्वामित्व को किसी भी कंपनी के लिए स्थिरता की ठोस गारंटी माना जाता है। हालांकि भारत में सरकारी हिस्सेदारी को इस तरह के सौदों में बड़े अवरोध के तौर पर देखा जाता है। भारत सरकार को एक गैर-भरोसेमंद और स्वच्छंद कामकाजी साझेदार माना जाता है। सरकारी एयरलाइन एयर इंडिया की हिस्सेदारी बेचने के लिए जारी निविदा में कोई भी बोली नहीं लगाए जाने का मूल संदेश यही है। एयर इंडिया में 24 फीसदी हिस्सेदारी बनाए रखने के भारत सरकार के फैसले को संभावित खरीदार किस तरह लेतेे? अनुलाभों एवं विशेषाधिकारों (कार, मुफ्त यात्रा, अतिथिगृहों के इस्तेमाल) की मांगों के अलावा कंपनी के कामकाज में मनमाना दखल देकर नीतिगत एवं चुनावी लक्ष्यों को पूरा करने की कोशिश तक भारत सरकार हरेक के लिए एक दु:स्वप्न ही है- दखलंदाजी करने वाला, घूसखोर और उससे भी बुरी बात गैर-जिम्मेदार सरीखा शेयरधारक है। मौजूदा दौर में नियमन में कमी आने के बावजूद सरकारी तेल कंपनियों को तेल कीमतों के बारे में साउथ ब्लॉक से निर्देश मिलते हैं। बैंक भी कर्ज माफी योजनाओं के संभावित ऐलान और मुनाफा नहीं दे रहे नि:शुल्क खातों के रखरखाव के बोझ तले दबे हैं। इसी तरह महारत्न कंपनियां भी सरकार की तरफ से ऊंचे लाभांश की मांगों को लेकर आशंकित रहती हैं।
सरकार के स्तर पर व्याप्त ऐसे ही कुप्रबंधन का एक मॉडल एयर इंडिया है। विमान खरीद के महंगे सौदे ने इस एयरलाइन को कर्ज के बोझ तले दबाने का काम किया और संभावित खरीदार को भी इसका एक हिस्सा चुकाना पड़ेगा। बाजार के बजाय नौकरशाही से इस एयरलाइन का मुख्य कार्याधिकारी चुने जाने की प्रवृत्ति ने भी प्रतिस्पर्द्धा कर पाने की एयर इंडिया की क्षमता को प्रभावित किया है। मंत्रियों और सांसदों की वजह से उड़ानों में होने वाला विलंब, परिवार के सदस्यों के लिए भी प्रीमियम सेवाओं की मांग और खुद एयरलाइन स्टाफ की बदसलूकी कड़ी प्रतिस्पद्र्धा और बेहद कम मार्जिन पर चलने वाले कारोबार के लिए मददगार नहीं है। एयर इंडिया के विभिन्न कर्मचारी संगठनों ने विनिवेश की कोशिश नाकाम होने का जश्न मनाया है। जरूरत से ज्यादा कर्मचारियों की मौजूदगी एक ऐसा सिरदर्द है जिसे कोई भी खरीदार नहीं झेलना चाहेगा। सरकार के एयर इंडिया से पूरी तरह अलग होने की स्थिति में भी इसकी बढ़ी हुई अक्षमता और विफलता इसे बिक्री के लिहाज से अनाकर्षक बना देती है।
निवेश की मंशा रखने वाली कंपनियों को यह भी पता चलेगा कि भारत सरकार का एक साझेदार के तौर पर प्रदर्शन दूसरी कंपनियों में भी मुश्किल पैदा करने वाला ही रहा है। अच्छी याद्दाश्त वाले लोगों को मारुति की साझेदार कंपनी सुजूकी के साथ छिड़ा प्रबंधकीय विवाद भी याद होगा। उस समय मारुति सुजूकी में 50 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाली सरकार के उद्योग मंत्रियों और नौकरशाहों ने इस साझा उपक्रम के चेयरमैन और फिर प्रबंध निदेशक के चयन में लगातार सुजूकी पर अपनी राय थोपी। इन दोनों ही पदाधिकारियों का मारुति के बोर्ड में शामिल सुजूकी के प्रतिनिधियों के साथ खराब रिश्ता रहा। उस समय ऐसी चर्चाएं थी कि सुजूकी के प्रतिनिधि आर सी भार्गव (संप्रति मारुति के चेयरमैन) की ताकत को कम करने के लिए ऐसा किया गया। इस बात की सच्चाई के बारे में नहीं मालूम है लेकिन भारत सरकार का संकीर्ण रवैया काफी असहज करने वाला था। इस विवाद के पीछे तकनीकी हस्तांतरण और क्षमता विस्तार को लेकर पैदा हुई असहमति, राष्ट्रीयकरण की धमकियों और अदालती मामलों का हाथ था। हालांकि बाद में वाजपेयी सरकार ने समझदारी भरा रवैया अपनाया और सुजूकी की तरफ से प्रबंध निदेशक के लिए सुझाए गए नाम पर मुहर लगा दी। इसके बदले में अदालती मुकदमा वापस ले लिया गया और जापानी कार कंपनी को परिचालन में अधिक भूमिका दे दी गई।
सुजूकी की पसंद जगदीश खट्टर प्रबंध निदेशक बने, कंपनी को बाजार में सूचीबद्ध किया गया और धीरे-धीरे सरकार उससे पूरी तरह अलग हो गई। यह कहना वाजिब होगा कि तब से मारुति ने अपनी जमीन मजबूती से बरकरार रखी है।  साझा उपक्रमों में इस तरह के प्रबंधकीय विवाद सरकार की निवेश आकांक्षाओं को प्रभावित कर सकते हैं। अगर निवेशकों के मन में फिर भी कोई संदेह है तो वे वेदांत के अनिल अग्रवाल से पूछ सकते हैं। बालको और हिंदुस्तान जिंक को वर्ष 2000 के शुरुआती दौर में खरीदने वाले अग्रवाल को अब भी सौ फीसदी नियंत्रण हासिल करने के प्रावधान पर अमल का इंतजार है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने मूल्यांकन को लेकर हुई असहमति के आधार पर ऐसा नहीं किया था। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने 2014 में प्रस्ताव रखा कि वह बालको में अपनी 49 फीसदी हिस्सेदारी को नीलामी के जरिये बेचेगी। उसके चार साल बाद भी बालको की आधिकारिक वेबसाइट में यही कहा गया है कि ‘भारत सरकार ने वर्ष 2001 में स्टरलाइट इंडस्ट्रीज को 51 फीसदी हिस्सेदारी बेच दी थी और बाकी 49 फीसदी हिस्सेदारी अब भी सरकार के ही पास है।’
जब वेदांत ने केयर्न एनर्जी को खरीदा था तो केयर्न के राजस्थान स्थित तेलक्षेत्रों में 30 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाली सार्वजनिक कंपनी ओएनजीसी ने तमाम रॉयल्टी और शुल्कों के भुगतान संबंधी मौलिक करार को सिरे से खारिज कर दिया। इस वजह से विलय सौदे का पूरा मूल्यांकन ही व्यापक स्तर पर बदल गया। ओएनजीसी का पक्ष इसलिए मजबूत था कि उसके प्रमुख शेयरधारक भारत सरकार ने नई शर्तें स्वीकार किए जाने और मध्यस्थता की अपील को वापस लिए जाने तक वेदांत-केयर्न सौदे को मंजूरी ही नहीं दी। यह हितों के संघर्ष के बारे में अध्ययन का विषय हो सकता है।

कश्मीर में नाकामयाब रहा भाजपा-पीडीपी गठबंधन (Source :- दैनिक भास्कर)

कश्मीर में पीडीपी गठबंधन से भाजपा के अलग होने के साथ वहां विपरीत राजनीतिक ध्रुवों के बीच हुई मेल-मिलाप की अच्छी शुरुआत का खत्म होना दुर्भाग्यपूर्ण है। उससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण हैं कश्मीर के हालात। वहां हालात 1989 जैसे हो चले हैं। इसका दोष किसी एक पर नहीं है। अगर रमजान के पवित्र महीने में संघर्षविराम के दौरान अमन का रुख न दिखाने के लिए आतंकी और अलगाववादी दोषी हैं तो वार्ता के लिए राजनीतिक पहल न कर पाने के लिए केंद्र सरकार भी कम दोषी नहीं है। अकर्मण्यता के इस गुनाह में मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी शामिल हैं और पाकिस्तान तो चाहता ही रहा है कि उसे साथ लिए बिना कश्मीर में कोई सरकार वार्ता शुरू करने में कामयाब न हो। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि पीडीपी और भाजपा गठबंधन तो पहले ही बारूद के ढेर पर बैठा था जरूरत थी बस एक चिंगारी की और उसे लगाने का काम संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट ने कर दिया। भाजपा ने कश्मीर में अलगाववादियों की समर्थक समझी जाने वाली पीडीपी से गठबंधन बनाकर राजनीतिक उदारता का परिचय दिया था और महबूबा मुफ्ती के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने इसे अमन की पहल समझकर ही स्वीकार किया था।
मुफ्ती सईद से लेकर महबूबा तक सभी ने यह उम्मीद जताई थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जो व्यापक जनादेश मिला है, वे उसका सद्‌भावपूर्वक इस्तेमाल करके कश्मीर का दिल जीत लेंगे। दुर्भाग्य रहा कि मुफ्ती का 2016 में निधन हो गया और मोदी व महबूबा मिलकर कोई बड़ी पहल करने की बजाय भीतरी गांठों को ही खोलते रहे। कभी गोमांस, कभी अनुच्छेद 370 तो कभी अनुच्छेद 35 ए के बहाने गठबंधन में तनाव पैदा होता रहा। बुरहान बानी के मारे जाने के बाद तो जैसे कश्मीर के युवाओं पर हुर्रियत नेताओं और महबूबा की पार्टी का नियंत्रण ही जाता रहा। कठुआ की घटना से बने सांप्रदायिक माहौल ने तीन महीने तक पीडीपी और भाजपा के बीच जो खींचतान पैदा की वह भाजपा के नेताओं के लिए असह्य हो गई। कठुआ के साथ सख्त होती जा रही महबूबा के लिए ऑपरेशन ऑल आउट जैसी कार्रवाई को झेलना कठिन था। यही वजह है कि कश्मीर की कमान राज्यपाल के हाथों में है और एक बार फिर लोकतंत्र कश्मीर से दूर है।

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A लोकपाल    लोकपाल चर्चा   में   क्यों   है ? हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष (पी.सी. घोष) ...