Friday 29 June 2018

हिंद महासागर में चीन को जवाब (Source:- LiveHindustan.com)

अभिजीत सिंह (सीनियर फेलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन)
एजम्पशन आइलैंड पर नौसैनिक अड्डा बनाने को लेकरभारत और सेशेल्स के बीच बनी सहमति सामरिक नजरिये से काफी अहम है। यह सही है कि 2015 का यह समझौता इस साल संशोधित किए जाने के बाद भी वहां की संसद की मंजूरी नहीं पा सका है। मगर दोनों देश एक-दूसरे के हितों को देखते हुए आपस में मिलकर इस नौसैनिक अड्डे पर काम करने को लेकर सहमत हुए हैं, जो सुकूनदेह है। इसे सेशेल्स के राष्ट्रपति डैनी फॉर के भारत दौरे की ‘बेस्ट पॉसिबल आउटकम’ कहा जा रहा है, यानी सबसे अच्छा संभावित नतीजा। मौजूदा स्थिति में इससे बेहतर परिणाम नहीं निकल सकता था। अगर यह समझौता रद्द हो जाता (जिससे जुड़ी रिपोर्ट कुछ दिनों पहले खबरों में आई थी), तो हमें खासा नुकसान हो सकता था। मगर अब उम्मीद बंधी है कि अगले चुनाव में सेशेल्स के मौजूदा राष्ट्रपति यदि और अधिक प्रभावी तरीके से सत्ता में आते हैं, तो यह समझौता वहां की संसद की रजामंदी पा सकता है।
इस नौसैनिक अड्डे को लेकर भारत की उत्सुकता और सेशेल्स की झिझक को समझना मुश्किल नहीं है। चीन इसकी एक बड़ी वजह है। उसका प्रभाव हिंद महासागर में लगातार बढ़ रहा है। यहां पहले भारत प्रभावी भूमिका में था और चीन दक्षिण चीन सागर में। मगर अब हिंद महासागर में चीन की दखल के बाद क्षेत्र की राजनीतिक व सामरिक तस्वीर पूरी तरह बदल गई है। उसने पूर्वी अफ्रीकी देश जिबूती में अपना सैन्य अड्डा तो बना ही लिया है, ग्वादर (पाकिस्तान) और हम्बनटोटा (श्रीलंका) बंदरगाह भी अपने खाते में झटक लिए हैं। इस बदलते घटनाक्रम से नई दिल्ली का चिंतित होना लाजिमी है। इस लिहाज से हमारे लिए एजम्पशन आइलैंड उम्मीद की एक बड़ी किरण है। यहां यदि नौसैनिक अड्डा बनकर तैयार हो जाता है, तो यह चीन को करारा जवाब देने जैसा होगा। मगर दुर्भाग्य से, चीन के दबाव के कारण ही सेशेल्स फिलहाल उलझन में दिख रहा है।  दरअसल, साल 2004 के बाद से सेशेल्स में चीन का निवेश काफी बढ़ गया है। और जिस तरह हिंद महासागर में भारत व चीन की स्पद्र्धा चल रही है, उसमें सेशेल्स, मॉरिशस, मालदीव जैसे आस-पास के तमाम छोटे-बड़े देश व आइलैंड खुलकर सामने आने से कतरा रहे हैं।
वे भारत को खुलेआम समर्थन देकर चीन की नाराजगी नहीं मोल लेना चाहते। एक दिक्कत यह भी रही कि कुछ सामरिक पंडित ने एजम्पशन आइलैंड के नौसैनिक अड्डे को इस रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया था, मानो यह अड्डा भारत का होगा और यहां से चीन के जहाजों पर नजर रखी जाएगी। इस अति-उत्साह ने भी सेशेल्स को अभी आगे बढ़ने से रोका है। अगर वह यह कहता कि नौसैनिक अड्डा भारत ही बनाएगा, तो भारत-चीन प्रतिस्पद्र्धा में संभवत: वह भी हिस्सा बनता दिखता। हालांकि अब भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है। अच्छी बात यह है कि सेशेल्स से हमारे रिश्तों में खटास नहीं आई है। लिहाजा भविष्य के लिए हम सकारात्मक भरोसा रख सकते हैं।
भारत और सेशेल्स के बीच बनी ताजा सहमति भी हमारे लिए कम फायदेमंद नहीं है। संयुक्त नौसैनिक अड्डा हिंद महासागर में हमारी सामरिक ताकत बढ़ाएगा। यहां भारत को घेरने के लिए चीन की विस्तारवादी नीतियां अपनी गति से चल रही हैं। आलम यह है कि उसकी पनडुब्बियां कभी-कभी दक्षिण एशियाई सागर में भी आ जाती हैं और हम उसे पकड़ नहीं पाते। हालांकि इसकी वजह तकनीक और साजो-सामान के मामले में हमारा चीन से कमतर होना भी है। मगर सेशेल्स का नौसैनिक अड्डा बनता है और भारत की मौजूदगी वहां बढ़ती है, तो इस महासागर में चीन की दखल पर हमारी नजर बनी रहेगी। यह सही है कि चीन को ‘काउंटर’ करने के लिए हमारे पास जितने पत्ते होने चाहिए, उतने नहीं हैं।
हमारा प्रयास मालदीव और मेडागास्कर जैसे राष्ट्रों से रिश्ता बढ़ाकर भी उसे रोकने का रहा है, जिसमें हमें सफलता नहीं मिल पाई। फिर चीन का इन देशों पर आर्थिक व राजनीतिक प्रभाव भी खासा है। इस लिहाज से देखें, तो सेशेल्स से समझौता हो पाना ही अपने-आप में बड़ी उपलब्धि है। हिंद महासागर में चीन से एक और चुनौती हमें ‘वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव’ के रूप में मिल रही है। इसके तहत महासागरीय क्षेत्र में भी तमाम तरह के निवेश किए जा रहे हैं। इसकी काट के लिए हम अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर एक ‘चतुष्कोणीय’ गुट बनाने को तत्पर हैं। यह एक राजनीतिक समूह तो होगा ही, इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए भी इसका अस्तित्व काफी मायने रखेगा। एक संयुक्त क्षेत्रीय ढांचागत स्कीम तैयार करने पर चारों देश विचार कर रहे हैं। अगर यह साकार हो जाता है, तो हम चीन को कई मामलों में चुनौती दे सकेंगे।
हालांकि वुहान में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्राध्यक्ष शी जिनपिंग की ‘अनौपचारिक मुलाकात’ से एक संदेश यह भी निकला कि भारत अब चीन के साथ एक स्थिर संबंध बनाने को लेकर अपनी ओर से रुचि दिखा रहा है। इसने ‘चतुष्कोणीय’ गुट की बुनियाद थोड़ी कमजोर की है। हालांकि मेरा मानना है कि जब तक इस चौकड़ी के बहाने हम राजनीतिक और सामरिक संबंधों को गति नहीं देंगे, हिंद महासागर में चीन की बढ़ती चुनौती का प्रभावी जवाब शायद ही दे पाएंगे। हमें अपनी उस ‘नेबरहुड पॉलिसी’ (पड़ोसी देशों को खास तवज्जो देने की नीति) को भी नई धार देनी होगी, जिसकी तरफ 2015 में कदम बढ़ाए गए थे। यह न सिर्फ हिंद महासागर क्षेत्र के लिए, बल्कि दक्षिण एशिया के लिहाज से भी किया जाना जरूरी है। आज भूटान, नेपाल जैसे हमारे करीबी पड़ोसी देश भी चीन के पाले में जाते दिख रहे हैं। हमें उन्हें समझाना होगा कि चीन या अमेरिका की तुलना में, भारत के साथ रिश्तों को मजबूती देना उनके लिए कहीं ज्यादा फायदेमंद है।

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