Thursday 4 April 2019

लोकपाल

  लोकपाल
चर्चा में क्यों है?
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष (पी.सी. घोष) को राष्ट्रपति ने देश का पहला लोकपाल नियुक्त किया है।
 लोकपाल क्या है ?
  • लोकपाल एक ‘भ्रष्टाचार विरोधी प्राधिकरण’ (Anti-corruption Authority) है जिसे ओम्बुड्समैन (Ombudsman) भी कहा जाता है।
  • यह भ्रष्टाचार एवं अन्य जन शिकायतों के निवारण के लिए संस्थागत तंत्र के रूप में कार्य करता है।
  • भारत में केन्द्र स्तर पर इस भ्रष्टाचार विरोधी संस्था का नाम लोकपाल है और राज्य स्तर पर इस संस्था का नाम लोकायुक्त है।
  • दूसरे शब्दों में, भारत में ओम्बुड्समैन के मॉडल को लोकपाल व लोकायुक्त की संज्ञा दी जाती है और इसके लिए ‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ को भी निर्मित किया गया है। इसके अतिरिक्त, भारत में लोकपाल एवं लोकायुक्त को मुख्यतः भ्रष्टाचार निवारण तंत्र के रूप में निर्मित किया गया है न कि जनता की शिकायतों के निवारण के संदर्भ में।
लोकपाल  की  पृष्ठभूमि
जन शिकायत निवारण तंत्र की अवधारणा सर्वप्रथम 1809 ई. में स्वीडन में विकसित हुई। सर्वप्रथम 1809 ई. में स्वीडन में ओम्बुड्समैन नामक अधिकारी की नियुक्ति की गई।
ओम्बुड्समैन अधिकारी, विधायिका की ओर से जनता की शिकायतों की सुनवाई करता है और उनका निराकरण करता है।
 इस पैटर्न पर विश्व के 40 से अधिक देशों ने जन शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना अलग-अलग रूपों में की है, जैसे-ब्रिटेन में पार्लियामेंट्री कमिश्नर, फ्रांस में प्रशासनिक न्यायालय एवं पूर्व सोवियत संघ में प्रॉक्यूरेटर की अवधारणा इत्यादि।
भारत में पृष्ठभूमि
  • भारत में ओम्बुड्समैन के सदृश लोकपाल के पद के सृजन के लिए किए जा रहे प्रयासों का इतिहास कई वर्ष पुराना है।
  • आजादी के बाद ही देश में भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए एक स्वतंत्र संस्था की स्थापना की मांग उठने लगी थी। इसकी स्थापना के लिए एम.सी. सीतलवाड़, एल.एम. सिंघवी एवं अनेक अन्य कानूनविदों तथा सांसदों के साथ-साथ प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (1966 ई.) ने भी पुरजोर वकालत की थी।
  • प्रशासनिक सुधार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में केन्द्र स्तर पर लोकपाल के साथ-साथ राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति की संस्तुति भी की थी।
  • लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक सर्वप्रथम 1968 ई. में लोकसभा में पेश हुआ और वहाँ से पारित होने के बाद राज्य सभा में भेजा गया। परंतु, लोकसभा के दिसम्बर, 1970 में विघटन के कारण यह राज्य सभा में पारित हुए बिना व्यपगत (Lapsed) हो गया।
  • इसके बाद यह बिल 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 में लोकसभा में पेश हुआ पर हर बार लोकसभा के विघटन या अन्य कारणों से यह विधेयक व्यपगत हो गया।
  • सन् 2005 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि सरकार को लोकपाल एवं लोकायुक्तों की नियुक्ति शीघ्र करनी चाहिए, ताकि शीर्ष स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म किया जा सके, लेकिन सरकार ने आयोग की इस सिफारिश को भी ठण्डे बस्ते में डाल दिया।
  • इस प्रकार, कई बार संसद में लोकपाल व लोकायुक्त से संबंधित विधेयक के व्यपगत होने और प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को सरकार द्वारा अनसुना कर देने से जनता सन् 2011 में आंदोलित हो गयी।
  • सन् 2011 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में लगभग पूरे देश ने भ्रष्टाचार विरोधाी तंत्र (लोकपाल व लोकायुक्त) को कानूनी रूप से गठित करने हेतु मांग की। अन्ततः सन् 2013 में केन्द्र सरकार ने ‘लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ को पारित किया।
लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया
केन्द्र स्तर पर लोकपाल की नियुक्ति के लिए दो समितियों की मुख्य भूमिका है—
  • चयन समिति (Selection committee)
  • सर्च समिति (Search Committee)
  • सर्च समिति को चयन समिति की सहायतार्थ हेतु गठित किया गया है। सर्च समिति का दायित्व है कि वह लोकपाल के अध्यक्ष व सदस्यों के नामों को खोजकर चयन समिति को सौंपे। इसके बाद चयन समिति इन नामों से चुनाव करके अंतिम अनुमोदन के लिए राष्ट्रपति को भेजती है।
  • सर्च समितिः वर्तमान में इसके आठ सदस्य हैं, जिसमें अनिवार्य रूप से आधे सदस्य अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, महिला एवं अल्पसंख्यक समुदाय से होते हैं।
  • चयन समितिः इस समिति में एक अध्यक्ष (प्रधानमंत्री) और चार सदस्य होते हैं। चार सदस्यों में लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष का नेता या लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीश या इनके द्वारा नामित किये गए सर्वोच्च न्यायालय का कोई न्यायाधीश और उक्त चारों के द्वारा संस्तुत कोई प्रख्यात विधि वेत्ता, जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013
केन्द्र स्तर पर लोकपाल और राज्य स्तर पर लोकायुक्तों द्वारा स्वतंत्र व निष्प्क्ष रूप से भ्रष्टाचार से संबंधित जाँच कराने हेतु ‘लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ में निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं—
  • यह अधिनियम कहता है कि केन्द्र स्तर पर एक लोकपाल और राज्य स्तर पर लोकायुक्तों का गठन किया जायेगा।
  • लोकपाल की संस्था में एक अध्यक्ष व अधिकतम 8 सदस्यों का प्रावधान है, जिसमें आधे सदस्य (अर्थात् 4 सदस्य) न्यायिक क्षेत्र से होंगे और शेष आधे सदस्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), महिला और अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे।
  • लोकपाल संस्था के अध्यक्ष व सदस्यों का चयन एक चयन समिति द्वारा किया जायेगा, जिन पर नियुक्ति की अंतिम मुहर राष्ट्रपति की होगी।
  • लोकपाल सभी लोक सेवकों की जाँच कर सकता है, यहां तक कि प्रधानमंत्री का पद भी लोकपाल की जांच के दायरे में होगा, लेकिन बहुत सारे विषयों में वे (प्रधानमंत्री) लोकपाल से परे हैं। उनके खिलाफ आरोप के निपटारे के लिए विशेष प्रक्रिया अपनायी जायेगी।
  • इस अधिनियम का महत्वपूर्ण उपबंध यह भी है कि अभियोजन (Prosecution) के लंबित होने की स्थिति में भी आरोपित लोकसेवक द्वारा भ्रष्ट साधनों से एकत्रित की गई संपत्ति को जब्त करने का आदेश लोकपाल दे सकता है।
  • सभी संगठन या तत्व जो फॉरेन कॉट्रिब्यूशन रेग्युलेशन एक्ट (एफ़.सी.आर.ए.) के तहत विदेशी स्रोतों से दान या सहायता राशि प्रापत करते हैं_ उन्हें भी लोकपाल के दायरे में रखा गया है (यदि ऐसी सहायता राशि प्रतिवर्ष 10 लाख रुपए से ऊपर हो तो)।
  • लोकपाल संस्था के माध्यम से ईमानदार अधिकारियों को पर्याप्त संरक्षण दिए जाने का भी प्रावधान है।
  • लोकपाल स्वयं द्वारा प्रेषित किए गए मुद्दे की जांच कराने के क्रम में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो सहित अन्य जांच एजेंसियों का अधीक्षण करने एवं उन्हें निर्देश देने की शक्ति से भी युक्त होगा। साथ ही, केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो या अन्य जांच एजेंसियों के वैसे अधिकारी जो लोकपाल द्वारा भेजे गए मामलों की जांच कर रहे हों, तो उनका स्थानान्तरण लोकपाल के अनुमोदन से ही हो सकता है।
  • अधिनियम प्रारंभिक जांच, पड़ताल और अभियोजन के लिए निश्चित समयावधि (6 माह) निर्धारित करता है और इसके लिए विशेष न्यायालयों के गठन का भी उपबंध करता है। प्रारंभिक जांच, पड़ताल और अभियोजन की निर्धारित समयावधि को 6 माह के लिए और बढ़ाया जा सकता है (यदि समुचित कारण उपलब्ध हो तो)।
  • विधेयक में इस बात का भी प्रावधान है कि इस अधिनियम के प्रारम्भ की तारीख को 365 दिनों के भीतर राज्य विधायिकाओं को भी विधि द्वारा लोकायुक्त की संस्था का गठन करना होगा।
  • लोकपाल संस्था के प्रशासकीय व्यय भारत की संचित निधि (Consolidated Fund) पर भारित होंगे। लोकपाल के अध्यक्ष का वेतन, भत्ता और सेवा शर्तें भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) के समान होंगी एवं अन्य सदस्यों के वेतन सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान होंगी।
  • इस अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि जो भी लोक सेवक किसी सार्वजनिक संस्था में भ्रष्टाचार को उजागर करता है अर्थात् व्हिसलब्लोअर की भूमिका को निभाता है, उसे पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध कराई जाये।
  • यदि लोकपाल को पहली नजर में यह लगता है कि कोई भी लोक सेवक भ्रष्टाचार में लिप्त है तो वह उसे समन जारी कर सकता है, चाहे उस लोक सेवक के खिलाफ जांच प्रारंभ हुई हो या नहीं।
आगे की राह
उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार से संबंधित मामलों को त्वरित गति व प्रभावी रूप से हल करने एवं दोषियों को सजा दिलाने के लिए लोकपाल व लोकायुक्त महत्वपूर्ण संस्थाएं हैं, अतः केन्द्र एवं राज्य सरकारों को इन्हें मजबूत करने के लिए उपयुक्त कदम उठाने चाहिए। अभी लोकपाल का गठन हुआ है, जिसको व्यावहारिक धरातल पर भ्रष्टाचार के खिलाफ एक लम्बी लड़ाई लड़नी है, इसलिए समय के अनुसार एवं जरूरत के मुताबिक ‘लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ में उपयुक्त संशोधन होते रहने चाहिए ताकि इस महत्वपूर्ण संस्था की प्रासंगिकता बरकरार रहे।

SOURCE - Dheya IAS

Sunday 17 March 2019

भारत में आंतरिक प्रवास एवं उसकी स्थिति

Headline : भारत में आंतरिक प्रवास एवं उसकी स्थिति
Details :
भारत में आंतरिक प्रवास एवं उसकी स्थिति
चर्चा में क्यों है?
पिछले दिनों गुजरात की घटना हो या फिर महाराष्ट्र में पूर्वी राज्यों के लोगों के साथ किया गया व्यवहार हो ये सभी प्रवास के कारण ही हुआ है। प्रवास क्यों होता है? इससे जुड़े मुद्दे क्या-क्या हैं तथा सरकार द्वारा प्रवासियों के लिए क्या-क्या प्रावधान किये गये हैं उनकी चर्चा हम विस्तार से करेंगे। इधर कई वर्षों से देखा जा रहा है कि देश में क्षेत्रीयता के नाम पर विषम हालात पैदा करते हुए भारत की अनेकता में एकता की संस्कृति पर चोट किया जा रहा है। इस प्रकार की घटनाएं श्रमिकों पर आश्रित उद्योग और उद्योगों पर अपनी जीविका के लिए आश्रित श्रमिक दोनों ही प्रभावित होते हैं, जो अंततः देश के आर्थिक-सामाजिक ढाँचे को कुप्रभावित करता है।
प्रवासियों से जुड़े मुद्दे
राजनीतिक मुद्दे
  • राजनीतिक वर्ग प्रवासित श्रमिकों विशेष रूप से अंतर्राज्यीय प्रवासियों की समस्याओं को अनदेखा करता है क्योंकि उन्हें वोट बेंक के रूप में नहीं गिना जाता है।
सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे
  • लाखों अकुशल और प्रवासी श्रमिक अस्थायी झोपड़ियों (आमतौर पर टिन शीट से बने) या सड़कों पर अथवा नगर पालिकाओं द्वारा गैर-मान्यता प्राप्त झोपड़ियों और अवैध बस्तियों में रहते हैं। अतः उसकी सुरक्षा एक गंभीर मुद्दा है।
  • इन प्रवासियों को सांस्कृतिक मतभेद, भाषा संबंधी बाधाएँ, समाज से अलगाव, मातृभाषा व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी जैसे कुछ अन्य मुद्दों का भी सामना करना पड़ता है।
  • बहुत कम प्रवासियों को उनके कानूनी और आर्थिक अधिकारों के बारे में पता होता है नतीजतन उनका शोषण होता है।
  • राज्य के लोगों द्वारा प्रवासियों की मौजूदगी को स्थानीय नौकरियों पर अतिक्रमण के रूप में भी देखा जाता है।
आर्थिक मुद्दे
  • बड़ी संख्या में प्रवासियों को अकुशल मजदूरों के रूप में काम मिलता है। अनौपचारिक नौकरियां करने के लिये मजबूतर होना पड़ता है। ये नौकरियां जोखिमपूर्ण और कम भुगतान वाली होती हैं।
  • एक असंगठित और अराजक श्रम बाजार में प्रवासी श्रमिकों को नियमित रूप से कार्यस्थल पर विवादों का सामना करना पड़ता है।
  • प्रवासी श्रमिकों द्वारा सामना किये जाने वाले आम मुद्दों में मजदूरी का भुगतान न किया जाना, शारीरिक दुर्व्यवहार और दुर्घटनाएं शामिल हैं।
  • स्वास्थ्य सेवाओं तक प्रवासी श्रमिकों की उचित पहुंच न होने के कारण उन्हें प्रतिकूल स्वास्थ्य का सामना करना पड़ता है।
भारत में आंतरिक श्रम प्रवासन के प्रकार
आंतरिक प्रवास के अंतर्गत चार धाराओं की पहचान की गई हैः (क) ग्रामीण से ग्रामीण (ख) ग्रामीण से नगरीय (ग) नगरीय से नगरीय और (घ) नगरीय से ग्रामीण।
  • श्रम प्रवाह में स्थायी, अर्ध-स्थायी, और मौसमी या परिपत्र प्रवासियाँ शामिल होते हैं।
  • अर्ध-स्थायी प्रवासी वे हैं जिनके पास अपने गंतव्य क्षेत्रों में अनिश्चित नौकरियां होने की संभावना है, या स्थायी कदम उठाने के लिए संसाधनों की कमी है। जबकि वे अपने गंतव्य शहरों में वर्षों या दशकों तक रह सकते हैं, उनके पास उनके भेजने वाले जिले में घर और परिवार हो सकते हैं।
  • इसके विपरीत, मौसमी प्रवासियों में रोजगार की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान का स्थानांतरित होने की संभावना होती है, जबकि परिपत्र प्रवाह में उन प्रवासियों को शामिल किया जाता है जो एक समय में छह महीने या उससे अधिक समय तक अपने गंतव्य पर रह सकते हैं। विद्वानों ने इस प्रवास को लंबे समय से एक प्रकार के रूप में चिन्हित किया है जिसमें एक व्यक्ति का स्थायी निवास वही रहता है, लेकिन उसकी आर्थिक गतिविधि का स्थान बदल जाता है।
  • विवाह के लिए प्रवास करने वाली कई महिलाएं श्रम बाजार में प्रतिभागी भी हैं, भले ही प्रवासन का उनका प्राथमिक कारण विवाह हो। शहरी क्षेत्रों में घरेलू नौकरानी का कार्य, तेजी से बढ़ता हुआ श्रम है जो महिलाओं को रोजगार देता है, इनमें अधिकतर ग्रामीण से शहरी प्रवासियों को शामिल किया जाता है।
भारत में प्रवास की वर्तमान स्थिति
विश्व जनसंख्या रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया की आधी आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती है, और यह संख्या हर साल लगातार बढ़ रही है। भारत में जहां अधिकांश आबादी अभी भी कृषि पर निर्भर है, वहां पर प्रवासन की स्थिति तेजी से बढ़ रही है। जनगणना के अनुसार, 2001 में भारत में शहरीकरण का स्तर 27.81% से बढ़कर 2011 में 31.16% हो गया है। भारत में शहरीकरण जनसांख्यिकीय विस्फोट और गरीबी से प्रेरित ग्रामीण-शहरी प्रवासन का परिणाम है।
भारत के आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 का अनुमान है कि भारत में अन्तर्राज्यीय प्रवासन का परिणाम 2011 और 2016 के बीच सालाना 9 मिलियन थी, जबकि जनगणना 2011 के अनुसार देश में आंतरिक प्रवासियों की कुल संख्या 139 मिलियन हो गई। गुजरात भारत के उन शीर्ष राज्यों में से एक है जो बड़े पैमाने पर प्रवासी श्रमिकों व अस्थायी और मौसमी श्रमिकों को रोजगार प्रदान करता है। गुजरात में वे कृषि, ईंट भट्टियाँ जेसे निर्माण कार्य व घरेलू, छोटी सेवाएं और व्यापार के साथ-साथ वस्त्रें की एक विस्तृत शृंखला में अकुशल या अर्द्ध कुशल नौकरियों में काम करते हैं।
ये कर्मचारी राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और यहां तक कि बिहार, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, असम और कर्नाटक से आये होते हैं। उनकी स्थिति का पफ़ायदा उठाने के लिए नियोक्ता कम से कम संभव मजदूरी दर पर श्रम इकट्ठा करने के लिए दूरदराज के अशिक्षित लोगों के बीच ठेकेदारों को भेजते हैं। उदाहरण के लिए, बड़े उद्योगपति द्वारा प्रचारित गुजरात में एक नया टाउनशिप असम के श्रमिकों के साथ बनाया जाना है। हैरानी की बात है कि गुजरात सरकार के पास गुजरात आने वाले प्रवासी श्रमिकों को लेकर कोई अनुमान नहीं है। वहीं अनौपचारिक रूप से आँकड़े 40 लाख से एक करोड़ के बीच होने का अनुमान है जो प्रवासी श्रमिकों को लेकर सरकार पर सवाल खड़ा करती है।
प्रवास तथा उसका कारण
लोग सामान्य रूप से अपने जन्म स्थान से भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं किंतु लाखों लोग अपने जन्म के स्थान और निवास को छोड़ देते हैं। इसके विविध कारण हो सकते हैं जिन्हें बृहत् रूप से दो संवर्गों में रखा जा सकता है-
    • प्रतिकर्ष कारक(Push Factor): जो लोगों को निवास स्थान अथवा उद्गम को छुड़वाने का कारण बनते हैं।
    • अपकर्ष कारक(Pull Factor:    जो विभिन्न स्थानों से लोगों को आकर्षित करते हैं।
भारत में लोग ग्रामीण से नगरीय क्षेत्रों में मुख्यतः गरीबी, कृषि भूमि पर जनसंख्या के अधिक दबाव, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा जैसी आधारभूत अवसंरचनात्मक सुविधाओं के अभाव इत्यादि के कारण प्रवास करते हैं। इन कारकों के अतिरिक्त बाढ़, सूखा, चक्रवाती तूफान, भूकम्प, सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाएँ, युद्ध, स्थानीय संघर्ष भी प्रवास के लिए अतिरिक्त प्रतिकर्ष पैदा करते हैं। दूसरी ओर अपकर्ष कारक हैं, जो लोगों को ग्रामीण क्षेत्रों से नगरों की ओर आकर्षित करते हैं। नगरीय क्षेत्रों की ओर अधिकांश ग्रामीण प्रवासियों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण अपकर्ष का कारक बेहतर अवसर, नियमित काम का मिलना और अपेक्षाकृत ऊंचा वेतन है। शिक्षा के लिए बेहतर अवसर, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं और मनोरंजन के स्रोत इत्यादि भी काफी महत्वपूर्ण अपकर्ष कारक है।
प्रवास के परिणाम
प्रवास, क्षेत्र पर अवसरों के असमान वितरण के कारण होता है। लोगों में कम अवसरों और कम सुरक्षा वाले स्थान से अधिक अवसरों और बेहतर सुरक्षा वाले स्थान की ओर जाने की प्रवृत्ति होती है। बदले में यह प्रवास के उद्गम और गंतव्य क्षेत्रों के लिए लाभ और हानि दोनों उत्पन्न करता है। इन परिणामों को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और जनांकिकीय संदर्भों में देखा जा सकता है।
आर्थिक परिणामः  प्रवासी श्रमिकों का होना भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अनिवार्य है। गुजरात जैसे कई अन्य राज्यों में विनिर्माण और निर्माण क्षेत्रों से संबंधित कई छोटे और मध्यम उद्यमों में सस्ते श्रम प्रदान करके ये प्रवासी श्रमिक राज्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
विदित हो कि पंजाब, केरल और तमिलनाडु अपने अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों से महत्वपूर्ण राशि प्राप्त करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों की तुलना में आंतरिक प्रवासियों द्वारा भेजी गई हुंडियों की राशि बहुत थोड़ी है, किंतु यह उद्गम क्षेत्र की आर्थिक वृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हुंडियों का प्रयोग मुख्यतः भोजन, ऋणों की अदायगी, उपचार, विवाह, बच्चों की शिक्षा, कृषिक निवेश, गृह-निर्माण इत्यादि के लिए किया जाता है। बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश इत्यादि के हजारों निर्धन गांवों की अर्थव्यवस्था के लिए ये हुंडियां जीवनदायक रक्त का काम करती है।
सामाजिक परिणामः प्रवासी सामाजिक परिवर्तन के अभिकर्ताओं के रूप में कार्य करते हैं। नवीन प्रौद्योगिकियों, परिवार नियोजन, बालिका शिक्षा इत्यादि से संबंधित नए विचारों का नगरीय क्षेत्रों से ग्रामीण क्षेत्रों की ओर विसरण इन्हीं के माध्यम से होता है।
प्रवास से विविध संस्कृतियों के लोगों का अंतर्मिश्रण होता है। इसका संकीर्ण विचारों को भेदते तथा मिश्रित संस्कृति के उद्विकास को भेदते तथा मिश्रित संस्कृति के उद्विकास में सकारात्मक योगदान होता है और यह अधिकतर लोगों के मानसिक क्षितिज को विस्तृत करता है। किंतु इसके गुमनामी जैसे गंभीर नकारात्मक परिणाम भी होते हैं जो व्यक्तियों में सामाजिक निर्वात और खिन्नता की भावना भर देते हैं। खिन्नता की सतत भावना लोगों को अपराध और औषध दुरुपयोग (drug abuse) जैसी असामाजिक क्रियाओं के पश में फ़ंसने के लिए अभिप्रेरित कर सकती है।
पर्यावरणीय परिणामः ग्रामीण से नगरीय प्रवास के कारण लोगों का अति संकुलन नगरीय क्षेत्रों में वर्तमान सामाजिक और भौतिक अवसंरचना पर दबाव डालता है। अंततः इससे नगरीय बस्तियों की अनियोजित वृद्धि होती है और गंदी बस्तियों और क्षुद्र कॉलोनियों का निर्माण होता है।
इसके अतिरिक्त प्राकृतिक संसाधनों के अति दोहन के कारण नगर भौमजल स्तर के अवक्षय, वायु प्रदूषण, वाहित मल के निपटाने और ठोस कचरे के प्रबंधन जैसी गंभीर समस्याओं का सामना कर रहे हैं।
जनांकिकीय परिणामः प्रवास से देश के अंदर जनसंख्या का पुनर्वितरण होता है। ग्रामीण नगरीय प्रवास नगरों में जनसंख्या की वृद्धि में योगदान देने वाले महत्वपूर्ण कारकों में से एक है। ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले युवा आयु, कुशल एवं दक्ष लोगों का बाह्य प्रवास ग्रामीण जनांकिकीय संघटन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। यद्यपि उत्तराखण्ड, राजस्थान, मध्य प्रदेश और पूर्वी महाराष्ट्र से होने वाले बाह्य प्रवास ने इन राज्यों की आयु एवं लिंग संरचना में गंभीर असंतुलन पैदा कर दिया है।
अन्यः    प्रवास (विवाहजन्य प्रवास को छोड़कर) स्त्रियों के जीवन स्तर को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित करता है। ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष वरणात्मक बाह्य प्रवास के कारण पत्नियां पीछे छूट जाती है जिससे उन पर अतिरिक्त शारीरिक और मानसिक दबाव पड़ता है। शिक्षा अथवा रोजगार के लिए ‘स्त्रियों’ का प्रवास उनकी स्वायत्तता और अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका को बढ़ा देता है किंतु उनकी सुभेद्यता (vulnerability) भी बढ़ती है।
प्रवासी श्रमिकों की सुरक्षा को लेकर प्रावधान
संवैधानिक प्रावधान
  • भारत का संविधान सभी नागरिकों को स्वतंत्रता की गांरटी देता है। मुक्त प्रवासन के आधारभूत सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 19(1) के खंड (d), (e) और (f) में स्थापित हैं, जो सभी नागरिकों को पूरे भारत क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से आवागमन करने, इच्छानुसार कोई भी वृत्ति, उपजीविका, व्यापार अथवा कारोबार करने का अधिकार देता है।
  • चारू खुराना बनाम भारतीय संघ और अन्य मामलों में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय स्पष्ट रूप से रोजगार के प्रयोजनों के लिये निवास आधारित प्रतिबंधों को असंवैधानिक करार देता है।
  • अनुच्छेद 15 अन्य आधारों के साथ-साथ जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है।
  • अनुच्छेद 16 सार्वजनिक रोजगार के मामलों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समानता की गारंटी देता है और खासकर से जन्म या निवास के स्थान पर भेदभाव की मनाही करता है।
वैधानिक प्रावधान
  • अनुबंध श्रम (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम (1970)
  •  अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिक (रोजगार और सेवा शर्त विनियमन) अधिनियम (1979)
  • बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधियिम (1986)
  • भवन एवं अन्य संनिर्माण श्रमिक (रोजगार एवं सेवा शर्तों का विनियमन) अधिनियम (1996)
  • असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम (2008)
आगे की राह
ऊपर के कुल अध्ययन का नियोजन यह है कि ग्रामीणों का शहरों की ओर पलायन मुख्यतः रोजगार, आधारभूत संरचनागत सुविधा और स्वास्थ्य व शिक्षा के लिए समुचित व्यवस्था के कारण होता है। यहाँ ध्यान योग्य बात है कि सरकार द्वारा प्रवास में हो रही वृद्धि को देखते हुए हाल के वर्षों में ग्रामीण इलाकों में इन सुविधाओं पर ध्यान दिया गया है, लेकिन अभी बहुत काम करने की जरूरत है। ध्यान देने योग्य यह भी है कि देश के दो राज्यों  के बीच असमान विकास क्यों है? यह सत्य है कि आर्थिक आधार पर उत्तर भारत के कई राज्य काफी कमजोर हैं। मानव विकास सूचकांक के आधार पर ही देखें तो उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे उत्तर भारतीय राज्य सबसे निचले स्थान पर हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राजय काफी पीछे हैं। यदि बिहार आर्थिक मोर्चे पर खराब प्रदर्शन कर रहा है या मानव विकास सूचकांक में इसके प्रदर्शन द्वारा निचले पायदान पर है तो इसका दोष सिर्फ बिहार को नहीं दिया जा सकता, क्योंकि इसके अन्य कई कारण भी हैं केंद्र सरकार नीति आयोग का गठन इस उद्देश्य के लिए किया गया ताकि सभी राज्यों का समग्र विकास हो सके एवं विकास की दौड़ में पिछड़ रहे राज्यों पर अतिरिक्त ध्यान दिया जा सके, लेकिन इस दिशा में कोई खास पहल हुई हो ऐसा दिख नहीं रहा है। बहुपक्षीय अर्थवाद के दौर में स्पष्ट दिख रही असमान विकास की स्थिति और इससे उपजने वाली समस्याएं हालाँकि दीर्घकाल से भारतीय समाज में विद्यमान है, किंतु इसका अब लगातार और भी विस्तार होता जा रहा है। इसकी परिणति अब क्षेत्रवाद की भावना के विस्तार में भी दिख रहा है जो हर प्रकार से राष्ट्रीय एकता के लिए उचित नही है। यहाँ कुछ उपायों का जिक्र किया जा सकता है जिससे प्रवासी श्रमिकों की स्थिति सुधारी जा सके जैसे—
  • कार्यस्थलों पर श्रम कानूनों का प्रवर्तन और व्यापक कानून का अधिनियमन किया जाना चाहिए। अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिक अधिनियम समेत मौजूदा श्रम कानूनों का कठोर प्रवर्तन आवश्यक है।
  • ग्रामीण-शहरी प्रवास को कम करने के लिये छोटे और मध्यम उद्योगों जैसे-ग्रामीण और कुटीर उद्योग, हथकरघा, हस्तशिल्प तथा खाद्य प्रसंस्करण एवं कृषि उद्योगों का विकास किया जाना चाहिये।
  • बुनियादी अधिकार और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये। प्रवासित परिवारों को गंतव्य क्षेत्रों में नागरिक अधिकार मुहैया करया जाना चाहिये।
  • प्रवासी श्रमिक आवश्यक बुनियादी सुविधाओं का लाभ उठा सकें इसके लिये सरकार द्वारा उन्हें पहचान-पत्र जारी किया जाना चाहिए।
  • प्रवासी श्रमिकों के लिये पूरे भारत में श्रम बाजार को विकसित किया जाना चाहिये और कार्यकाल की सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
  • पंचायतों को अपने क्षेत्र में रहने वाली प्रवासी श्रमिकों के लिये संसाधन पूल के रूप में उभरना चाहिये। उन्हें प्रवासी श्रमिकों का एक रजिस्टर बनाना चाहिये ताकि उन्हें पहचान-पत्र जारी किया जा सके।
  • प्रवासी मजदूरों की शिक्षा तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिये शिक्षा के अधिकार (RTE) अधिनियम के तहत विशेष नीति पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये। उन्हें संगठित क्षेत्रों में शामिल करने के लिये कौशल विकास को भी प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
  • सरकार को प्रवासियों पर ध्यान केन्द्रित करते प्रवासी श्रमिकों से संबंधित कानून को कठोरतापूर्वक लागू किया जाना चाहिए।
  • भारत को प्रवासन प्रवाह की गहरी समझ प्राप्त करने की भी आवश्यकता है, ताकि आवास और बुनियादी ढाँचे, स्वास्थ्य देखभाल और उपयोगिताओं, शिक्षा और कौशल की बदलती जरूरतों के बारे में अनुमान लगाए जा सकें। भारत को अलग-अलग जनसांख्यिकीय संक्रमण, प्रवृत्तियों को संज्ञान में लेने की जरूरत है, ताकि भविष्य की जरूरतों के अनुकूल कार्रवाई की जा सके।

लोकपाल

A लोकपाल    लोकपाल चर्चा   में   क्यों   है ? हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष (पी.सी. घोष) ...