Thursday 23 August 2018

भारत में उच्च शिक्षा: चुनौतियाँ एवम् समाधान

Headline :  भारत में उच्च शिक्षा: चुनौतियाँ एवम् समाधान
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 किसी भी देश के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व वैज्ञानिक विकास के लिए उच्च शिक्षा से लैस एक शिक्षित आबादी आवश्यक है। यदि भारत की बात करें तो भारत का उच्च शिक्षा तंत्र अमेरिका व चीन के बाद विश्व का तीसरा सबसे बड़ा उच्च शिक्षा तंत्र है। जहाँ लगभग 864 विश्वविद्यालय, 40026 कॉलेज और 11669 स्टैंड-अलोन संस्थान हैं। लेकिन, जब गुणवत्ता की बात आती है तो भारत के शिक्षा संस्थान विश्व के शीर्ष 100 में भी कहीं स्थान नहीं बना पाते। इससे स्वयंसिद्ध है कि भारत में उच्च शिक्षा की स्थिति अंतर्राष्ट्रीय मानकों के स्तर पर ठीक नही है।
 आज, भारत के सामने उच्च शिक्षा से संबंधित कई बुनियादी समस्याएँ हैं। इन समस्याओं में अपर्याप्त बुनियादी ढ़ाँचे और सुविधाएँ, संकाय पदों में खाली पड़ी रिक्तियाँ, कम छात्र नामाँकन दर, आउटडेटेड शिक्षण विविधाँ व पाठ्यक्रम, अनुसंधान मानकों में गिरावट, व्यापक भौगोलिक, आय, लिंग व जातीय असंतुलन इत्यादि शामिल हैं। इसके अलावा, गरीब परिवारों से आने वाले छात्रों के लिए गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा तक न्यायसंगत पहुंच सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती है। अकादमिक रूप से खराब पृष्ठभूमि के छात्रों को और नुकसान उठाना पड़ता है क्योंकि जिन शहरी अभिजात वर्ग व समृद्ध छात्रों के लिए निजी शिक्षण तथा कोचिंग तक पहुंच आसान है उनकी तुलना में ये छात्र शैक्षणिक रूप से प्रतिस्पर्द्धी परीक्षाओं को क्रैक करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं।
 वर्तमान समय में, भारत में उच्च शिक्षा में  नामाँकन दर अत्यंत कम है। यदि ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ द्वारा आयोजित ‘उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण’ के एक आँकड़े पर नज़र डालें तो भारत में उच्च शिक्षा में ‘सकल नामांकन दर’ (जी.ई.आर.) 25.2 प्रतिशत है, जिसका आधार 18 से 23 वर्ष के आयु वर्ग के कुल जनसंख्या में से नामांकित छात्रों की संख्या है। गौरतलब है कि भारत में महिलाओं का नामांकन दर (24.5%) पुरुष (26.0%) की तुलना में कम है। सरकार की तरफ से उच्च शिक्षा में ‘सकल नामांकन दर’ 2020 तक 30% का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
 यदि कॉलेज व विश्वविद्यालयों में छात्र-शिक्षक अनुपात की बात करें तो यह अनुपात मात्र 22 है। यहां तक कि, बदलते वैश्विक परिदृश्य में, भारत में उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम भी अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर खरा नहीं उतरता है। शिक्षण की विधि भी पुरानी परिपाटी पर ही आधाति है। इन संस्थानों में कुशल एवं पर्याप्त मानव संसाधनों की अत्यंत कमी है। वाणिज्यिक शिक्षा ने उच्च शिक्षा क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है। इससे असमानता को और अधिक बढ़ावा मिला है। सार्वजनिक संस्थानों में छात्र नामाँकन में गिरावट यह दर्शाता है कि आज शिक्षा अधिक महंगी हो गयी है। वर्तमान में मौजूद शिक्षण संस्थाएं सामाजिक-आर्थिक स्तर के रूप में कार्य करने के बजाए सामाजिक-आर्थिक विभाजन को और आगे बढ़ाने में सहायक बन गये हैं। जहाँ एक ओर, देश के छात्रों द्वारा निजी कॉलेजों में दाखिला लेने का प्रतिशत 67% है, वहीं दूसरी ओर सरकारी कॉलेजों में दाखिला का यह प्रतिशत मात्र 33% है।
 ध्यातव्य है कि, ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन और मान्यता परिषद्’ ने अपनी मूल्यांकन रिपोर्ट में बताया है कि, भारत के 68%संस्थान मध्यम या खराब गुणवत्ता वाले हैं। यदि, भारत सरकार द्वारा शिक्षा पर बजटीय आवंटन की बात करें तो यह मात्र 2.5% है जो सार्वजनिक संस्थानों में आधारभूत संरचना को अपग्रेड करने की दृष्टि से बहुत ही कम है। भारतीय संकाय के परिसरों में विदेशी छात्रों की कम संख्या भी दृष्टव्य है। लगभग 35 मिलियन छात्रों के कुल नामांकन में से केवल 4500 विदेशी छात्र ही नामांकित हैं।
 ज्ञातव्य है कि, भारत में शैक्षणिक अनुसंधान कार्य का स्तर बहुत ही निम्न है। इसके अतिरिक्त, यदि संख्या की दृष्टि से मूल्यांकन करें तो भारत में प्रति मिलियन 119 शोधकर्ता हैं जो जापान व अमेकिा जैसे देशों की तुलना में बहुत ही कम है।
 इसके अलावा, भारत में शिक्षा संस्थानों की सीमित स्वायत्तता भी चिंता का विषय है।
 देश को विकसित राष्ट्र में बदलने के लिए आवश्यक है कि हम अपनी उच्च शिक्षा प्रणाली में आवश्यकतानुरूप परिवर्तन करें। भारत में उच्च-शिक्षा की वर्तमान समस्याओं को दूर करने हेतु इसकी गंभीरता से ईलाज करना जरूरी है। आज अध्यापन विधि को परिवर्तित करने की आवश्यकता है, साथ ही वर्तमान पाठ्यक्रम में वैश्विक परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए बदलाव करते हुए इसे देश की अर्थव्यवस्था व वैश्विक बाजार की जरूरतों के साथ लिंक करना होगा। शोध की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए भारत को विदेशी संस्थानों के साथ सहयोग करने की जरूरत है। भारत में उच्च शिक्षा की स्थिति को सुधारने व और इसको और अधिक प्रतिस्पर्धात्मक बनाने हेतु विदेशी शिक्षण संस्थानों को भारत के शिक्षा क्षेत्र में प्रवेश देने से संबंधित सभी आयामों पर विचार किया जा सकता है।
 सरकार को ‘राष्ट्रीय ज्ञान आयोग’ के उस सिफारिश पर भी ध्यान देना होगा जिसमें कहा गया है कि यू.जी.सी. को अनुदान की शक्तियों से हटा दिया जाए। ‘सिंगापुर’ के दृष्टिकोण का अनुसरण करते हुए सरकार द्वारा ‘टियरिंग फंडिंग मॉडल’ को भी अपनाया जा सकता है, जिसमें उच्च प्रदर्शन मानकों वाले संस्थानों को अधिक धन और अधिक स्वायत्तता प्रदान करने की जरूरत है। शिक्षकों को दिए गये वेतनमान में सुधार कहीं न कहीं उन्हें अपने कार्य के प्रति प्रोत्साहित ही करेगा।
 विश्वविद्यालयों को केवल विनियमित करके सुधार नहीं किया जा सकता है, इसके बजाए, एक कारगर व उचित उपाय अपनाते हुए सक्षम वातावरण निर्मित करने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, कार्य नैतिकता को नियंत्रित करते हुए बेहतर वित्त पोषण और अनुसंधान हेतु नये उपकरणों को प्रदान करना आवश्यक है, ताकि भारत अपने जनांकिकीय लाभांश का मानव पूंजी के रूप में अनुकूलतम दोहन कर सके।
 निष्कर्षतः भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र को नया आयाम देने हेतु सावधानीपूर्वक योजना बनाई जानी चाहिए ताकि भविष्य में क्षेत्रीय व सामाजिक असंतुलन को समाप्त किया जा सके। मानको को बेहतर बनाने और उत्कृष्टता के अंतर्राष्ट्रीय मानक तक पहुंचने के लिए संस्थानों में व्याप्त कमियों को दूर करते हुए उन्हें पुनर्जीवित करना होगा। उच्च शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए सरकार, निजी क्षेत्र, अकादमिक और नागरिक समाज के व्यापक और सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता होगी, ताकि सभी के लिए उपलब्धता, पहुंच और वहनीयता को सुनिश्चित करते हुए देश की उच्च शिक्षा में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गुणवत्ता और उत्कृष्टता स्थापित किया जा सके।

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