Wednesday 20 June 2018

सरकारी कुप्रबंधन का ही नमूना है एयर इंडिया (Source:- Business Standard )

अधिकांश देशों में संप्रभु शक्ति के साथ कॉर्पोरेट क्षेत्र के साझा स्वामित्व को किसी भी कंपनी के लिए स्थिरता की ठोस गारंटी माना जाता है। हालांकि भारत में सरकारी हिस्सेदारी को इस तरह के सौदों में बड़े अवरोध के तौर पर देखा जाता है। भारत सरकार को एक गैर-भरोसेमंद और स्वच्छंद कामकाजी साझेदार माना जाता है। सरकारी एयरलाइन एयर इंडिया की हिस्सेदारी बेचने के लिए जारी निविदा में कोई भी बोली नहीं लगाए जाने का मूल संदेश यही है। एयर इंडिया में 24 फीसदी हिस्सेदारी बनाए रखने के भारत सरकार के फैसले को संभावित खरीदार किस तरह लेतेे? अनुलाभों एवं विशेषाधिकारों (कार, मुफ्त यात्रा, अतिथिगृहों के इस्तेमाल) की मांगों के अलावा कंपनी के कामकाज में मनमाना दखल देकर नीतिगत एवं चुनावी लक्ष्यों को पूरा करने की कोशिश तक भारत सरकार हरेक के लिए एक दु:स्वप्न ही है- दखलंदाजी करने वाला, घूसखोर और उससे भी बुरी बात गैर-जिम्मेदार सरीखा शेयरधारक है। मौजूदा दौर में नियमन में कमी आने के बावजूद सरकारी तेल कंपनियों को तेल कीमतों के बारे में साउथ ब्लॉक से निर्देश मिलते हैं। बैंक भी कर्ज माफी योजनाओं के संभावित ऐलान और मुनाफा नहीं दे रहे नि:शुल्क खातों के रखरखाव के बोझ तले दबे हैं। इसी तरह महारत्न कंपनियां भी सरकार की तरफ से ऊंचे लाभांश की मांगों को लेकर आशंकित रहती हैं।
सरकार के स्तर पर व्याप्त ऐसे ही कुप्रबंधन का एक मॉडल एयर इंडिया है। विमान खरीद के महंगे सौदे ने इस एयरलाइन को कर्ज के बोझ तले दबाने का काम किया और संभावित खरीदार को भी इसका एक हिस्सा चुकाना पड़ेगा। बाजार के बजाय नौकरशाही से इस एयरलाइन का मुख्य कार्याधिकारी चुने जाने की प्रवृत्ति ने भी प्रतिस्पर्द्धा कर पाने की एयर इंडिया की क्षमता को प्रभावित किया है। मंत्रियों और सांसदों की वजह से उड़ानों में होने वाला विलंब, परिवार के सदस्यों के लिए भी प्रीमियम सेवाओं की मांग और खुद एयरलाइन स्टाफ की बदसलूकी कड़ी प्रतिस्पद्र्धा और बेहद कम मार्जिन पर चलने वाले कारोबार के लिए मददगार नहीं है। एयर इंडिया के विभिन्न कर्मचारी संगठनों ने विनिवेश की कोशिश नाकाम होने का जश्न मनाया है। जरूरत से ज्यादा कर्मचारियों की मौजूदगी एक ऐसा सिरदर्द है जिसे कोई भी खरीदार नहीं झेलना चाहेगा। सरकार के एयर इंडिया से पूरी तरह अलग होने की स्थिति में भी इसकी बढ़ी हुई अक्षमता और विफलता इसे बिक्री के लिहाज से अनाकर्षक बना देती है।
निवेश की मंशा रखने वाली कंपनियों को यह भी पता चलेगा कि भारत सरकार का एक साझेदार के तौर पर प्रदर्शन दूसरी कंपनियों में भी मुश्किल पैदा करने वाला ही रहा है। अच्छी याद्दाश्त वाले लोगों को मारुति की साझेदार कंपनी सुजूकी के साथ छिड़ा प्रबंधकीय विवाद भी याद होगा। उस समय मारुति सुजूकी में 50 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाली सरकार के उद्योग मंत्रियों और नौकरशाहों ने इस साझा उपक्रम के चेयरमैन और फिर प्रबंध निदेशक के चयन में लगातार सुजूकी पर अपनी राय थोपी। इन दोनों ही पदाधिकारियों का मारुति के बोर्ड में शामिल सुजूकी के प्रतिनिधियों के साथ खराब रिश्ता रहा। उस समय ऐसी चर्चाएं थी कि सुजूकी के प्रतिनिधि आर सी भार्गव (संप्रति मारुति के चेयरमैन) की ताकत को कम करने के लिए ऐसा किया गया। इस बात की सच्चाई के बारे में नहीं मालूम है लेकिन भारत सरकार का संकीर्ण रवैया काफी असहज करने वाला था। इस विवाद के पीछे तकनीकी हस्तांतरण और क्षमता विस्तार को लेकर पैदा हुई असहमति, राष्ट्रीयकरण की धमकियों और अदालती मामलों का हाथ था। हालांकि बाद में वाजपेयी सरकार ने समझदारी भरा रवैया अपनाया और सुजूकी की तरफ से प्रबंध निदेशक के लिए सुझाए गए नाम पर मुहर लगा दी। इसके बदले में अदालती मुकदमा वापस ले लिया गया और जापानी कार कंपनी को परिचालन में अधिक भूमिका दे दी गई।
सुजूकी की पसंद जगदीश खट्टर प्रबंध निदेशक बने, कंपनी को बाजार में सूचीबद्ध किया गया और धीरे-धीरे सरकार उससे पूरी तरह अलग हो गई। यह कहना वाजिब होगा कि तब से मारुति ने अपनी जमीन मजबूती से बरकरार रखी है।  साझा उपक्रमों में इस तरह के प्रबंधकीय विवाद सरकार की निवेश आकांक्षाओं को प्रभावित कर सकते हैं। अगर निवेशकों के मन में फिर भी कोई संदेह है तो वे वेदांत के अनिल अग्रवाल से पूछ सकते हैं। बालको और हिंदुस्तान जिंक को वर्ष 2000 के शुरुआती दौर में खरीदने वाले अग्रवाल को अब भी सौ फीसदी नियंत्रण हासिल करने के प्रावधान पर अमल का इंतजार है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने मूल्यांकन को लेकर हुई असहमति के आधार पर ऐसा नहीं किया था। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने 2014 में प्रस्ताव रखा कि वह बालको में अपनी 49 फीसदी हिस्सेदारी को नीलामी के जरिये बेचेगी। उसके चार साल बाद भी बालको की आधिकारिक वेबसाइट में यही कहा गया है कि ‘भारत सरकार ने वर्ष 2001 में स्टरलाइट इंडस्ट्रीज को 51 फीसदी हिस्सेदारी बेच दी थी और बाकी 49 फीसदी हिस्सेदारी अब भी सरकार के ही पास है।’
जब वेदांत ने केयर्न एनर्जी को खरीदा था तो केयर्न के राजस्थान स्थित तेलक्षेत्रों में 30 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाली सार्वजनिक कंपनी ओएनजीसी ने तमाम रॉयल्टी और शुल्कों के भुगतान संबंधी मौलिक करार को सिरे से खारिज कर दिया। इस वजह से विलय सौदे का पूरा मूल्यांकन ही व्यापक स्तर पर बदल गया। ओएनजीसी का पक्ष इसलिए मजबूत था कि उसके प्रमुख शेयरधारक भारत सरकार ने नई शर्तें स्वीकार किए जाने और मध्यस्थता की अपील को वापस लिए जाने तक वेदांत-केयर्न सौदे को मंजूरी ही नहीं दी। यह हितों के संघर्ष के बारे में अध्ययन का विषय हो सकता है।

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