Friday 29 June 2018

अहम शक्ति बनने के लिए जरूरी हैं समुद्री क्षमताएं (Source:- Business Standard)

अगले दो दशक में दुनिया की प्रमुख ताकत बनने के लिए यह आवश्यक है कि भारत समुद्री क्षेत्र में गहरी क्षमताएं विकसित करे।

प्रेमवीर दास , (लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं। प्रस्तुत विचार पूरी तरह व्यक्तिगत हैं।)
इन दिनों हर तरफ समुद्री सुरक्षा की चर्चा चल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका यात्रा के दौरान वहां के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से जो बातचीत की उसके बाद ऐसी चर्चाओं का सिलसिला शुरू हुआ जिनसे यह बोध हुआ कि भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में हित वाला एक प्रमुख समुद्री क्षेत्र बन सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फ्रांस के राष्ट्रपति एमानुअल मैक्रां के साथ बातचीत के दौरान और फिर आसियान देशों के प्रमुखों के साथ चर्चा में भी समुद्री सुरक्षा का मुद्दा प्रमुख रहा। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के साथ बातचीत में भी इस विषय पर चर्चा हुई।
अभी हाल ही में इंडोनेशिया, मलेशिया और सिंगापुर में और सैद्घांतिक तौर पर सामरिक महत्व के शांग्रीला संवाद में अपने वक्तव्य में मोदी ने देश के इर्दगिर्द के समुद्री क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर चिंता जाहिर की। इतना ही नहीं उन्होंने सिंगापुर में विशेष रूप से तैनात भारतीय युद्घपोत पर अमेरिकी रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस का स्वागत भी किया। अगर कोई साधारण व्यक्ति इस परिदृश्य पर दृष्टिï डाले तो उसे लगेगा कि भारत बहुत तेजी से उपमहाद्वीपीय भूक्षेत्र वाले शक्तिशाली राष्ट्र से समुद्री क्षमता संपन्न देश बनने की ओर अपनी रुचि बढ़ा रहा है। परंतु जमीनी हकीकत एकदम अलग है।
हमारा रक्षा बजट 27.4 खरब रुपये का है जो जीडीपी के प्रतिशत के हिसाब से अब तक का न्यूनतम है। नौसेना को इसमें से 14 फीसदी राशि आवंटित होती है। ऐसे में तो हम हिंद महासागर क्षेत्र के आसपास ही बहुत प्रभावी नहीं रह पाएंगे, एशिया-प्रशांत क्षेत्र की तो बात दूर ही है। हां, एक या दो युद्घपोतों से यदाकदा मित्रतापूर्ण यात्राएं की जा सकती हैं और मित्र नौसेनाओं की मदद से कुछ युद्घाभ्यास किए जा सकते हैं। यहां तक कि मालाबार जैसा बड़ा सैन्याभ्यास भी किया जा सकता है लेकिन इससे हम बड़ी समुद्री शक्ति नहीं बन जाएंगे।
ताजातरीन रक्षा बजट के केवल 14 फीसदी के साथ नौसेना नकदी की कमी से जूझ रही है और समूचे हिंद महासागर क्षेत्र के लिए तैयार नहीं है। हिंद-प्रशांत तो दूर की बात है। रक्षा नीतिकारों को यह समझना होगा। अगर हमें उपरोक्त लक्ष्यों को हासिल करना है तो हमें सामरिक रुझान को देखते हुए अपना निवेश बढ़ाना होगा और अगर हम उस दिशा में बढ़ते हैं तो दो मोर्चों पर युद्घ की तैयारी जैसी बातें तत्काल हमारी राह रोक लेती हैं। क्षमताओं के साथ ऐसा कोई भी समझौता नौसेना की हिस्सेदारी को हमेशा सीमित रखेगा और इस तरह प्रधानमंत्री के सपनों का हकीकत में बदलना दूरी की कौड़ी बना रहेगा।
15 साल पहले रक्षा बजट में नौसेना की हिस्सेदारी 18 फीसदी थी और उसके जल्दी 20 फीसदी होने की उम्मीद थी। उसके लिए हमारी जमीनी सीमा पर आक्रमण होने और घरेलू स्तर पर पनपने वाले किसी भी तरह के विद्रोह का पुनर्आकलन होना था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। चूंकि थल सेना की हिस्सेदारी पहले जैसी बरकरार है इसलिए भारतीय सशस्त्र बलों को वह मिलता रहेगा जो वे पिछले छह दशक से पाते रहे हैं। इस तरह समुद्री शक्ति बनने की चर्चा केवल बातों में रह जाएगी। लब्बोलुआब यह है कि मौजूदा विचार प्रक्रिया के मुताबिक समुद्री क्षमता बढ़ाने की भारत की जोर नहीं पकड़ पाएगी और अपेक्षाकृत दूर बनी रहेगी।
अमेरिका की कोशिश हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर ध्यान देने की है और इसे समझा जा सकता है। देर से सही लेकिन यह चीन द्वारा पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में उठाए जा रहे कदमों के प्रति सीधी प्रतिक्रिया है। वह चीन को दक्षिणी चीन सागर के स्पार्टली द्वीप में यानी ऐसे इलाके में विमानन परिचालन सुविधा कायम करने से रोकना चाहता है जो साफ तौर पर उसका भूभाग नहीं है। इस बीच क्षेत्र में अपनी पहुंच बढ़ाने के क्रम में अमेरिका कई क्षेत्रीय देशों को अपने पाले में करना चाहता है। जापान और ऑस्ट्रेलिया तो पहले से ही उसके पाले में हैं जबकि भारत उनमें ताजातरीन है।
भारत की नीति इस क्षेत्र में सक्रिय रहने की हो सकती है लेकिन अगर वह इस क्षेत्र की एक अहम ताकत बनना चाहता है तो उसे समुद्र में विश्वसनीय क्षमता दिखानी होगी। खासतौर पर हिंद महासागर क्षेत्र में। जैसा कि हमने पहले कहा अभी उसके पास ऐसी क्षमता नहीं है और भविष्य में भी ऐसा तब तक नहीं होगा जब तक कि हम अपनी सोच में परिवर्तन नहीं लाएंगे। हमें भू सीमाओं प्रति अपने लगाव को परे करना होगा। भू सीमाओं पर शत्रु के आक्रमण और कब्जे की आशंकाओं में कुछ दशक पहले तक दम था लेकिन बीते कुछ वर्षों में हालात नाटकीय अंदाज में बदल गए हैं। हम सभी इस बात को अच्छी तरह समझते भी हैं। संक्षेप में कहें तो हम जो कहते हैं उसमें और हमारी क्षमताओं में बहुत अधिक अंतर है।
हमारी आकांक्षाओं को परिणाम में बदलने के लिए भारत को खुद को पारंपरिक उपमहाद्वीपीय शक्ति से एक मजबूत समुद्री शक्ति में बदलना होगा। अगर हमें अगले 20 वर्ष में दुनिया की शीर्ष चार-पांच ताकतों में से एक बनना है तो हमें समुद्री क्षमताओं के विकास पर काफी ध्यान देना होगा। पश्चिमी ताकतों की बात करें तो वे ऐतिहासिक रूप से समुद्री शक्ति वाले देश रहे हैं और अब तो चीन भी यह स्वीकार कर चुका है कि कोई देश तब तक बड़ी शक्ति नहीं बन सकता है जब तक कि उसने समुद्री क्षेत्र में अपनी क्षमताओं को साबित नहीं कर दिया हो। इसीलिए चीन पूर्वी और दक्षिणी चीन सागर में आक्रामक भूमिका में नजर आ रहा है और उसने हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी क्षमताएं विकसित की हैं। उसकी युद्घपोत निर्माण परियोजना बहुत तेज गति से चल रही है और उसने केवल पांच साल में विमान वाहक पोत तैयार किया है। इससे भी पता चलता है कि वह लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में किस गति से बढ़ रहा है। हमारे पास वक्त बहुत कम है।
हमारे देश में सुरक्षा की स्थिति तेजी से बदल रही है। अब हमें दुनिया में शीर्ष तीन-चार शक्तियों में से एक बनना होगा। इसके लिए हमें राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य क्षमता विकसित करनी होगी। हमारे सशस्त्र बलों के आकार पर नए सिरे से नजर डालने का वक्त है। इसलिए नहीं कि इससे अगले कुछ सालों में कोई बड़ा बदलाव आने वाला है बल्कि इसलिए क्योंकि बिना इसके हम वहां नहीं पहुंच सकेंगे जहां हमें अब से दो दशक बाद होना चाहिए। इस लिहाज से देखें तो मौजूदा सरकार और प्रधानमंत्री ने अपनी बात कहकर शुरुआत कर दी है। परंतु केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है। अब वक्त आ गया है कि बातों पर अमल किया जाए।

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