Saturday 12 May 2018

रिश्तों की गांठ खोल सकता है प्रधानमंत्री का नेपाल दौरा (Source:- दैनिक भास्कर)

संपादकीय

उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी तीसरी नेपाल यात्रा में यह अच्छी तरह समझ सकेंगे कि भारत का यह पड़ोसी देश हमसे क्या चाहता है और नेपाल के कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली मोदी के समक्ष अपने देश और सरकार का मानस खोलकर रखेंगे। मोदी ने अपनी पहली यात्रा की तरह ही इस यात्रा को भी धार्मिक-सांस्कृतिक रंग देने की कोशिश की है। पहली यात्रा में उन्होंने पशुपतिनाथ में पूजा अर्चना की थी तो इस बार उन्होंने जानकी मंदिर में प्रार्थना के साथ और जनकपुर से अयोध्या की बस सेवा को हरी झंडी दिखाई। मोदी सरकार का लक्ष्य इस बस सेवा से भारत और नेपाल के सांस्कृतिक संबंधों की प्राचीनता को रेखांकित करना है। अयोध्या और जनकपुर के इस पौराणिक रिश्तों के आख्यान से जो लोग परिचित हैं वे यह भी जानते हैं कि सीता को आजीवन हुए कष्ट के कारण मिथिलावासी अपनी बेटी अवध में नहीं भेजना चाहते।

इसी पौराणिक ग्रंथि को आधुनिक संदर्भ में भारत और नेपाल के बीच सितंबर 2015 में हुई नाकेबंदी से जोड़कर देखा जाना चाहिए। नाकेबंदी नेपालियों ने ही की थी लेकिन, आरोप यही था कि यह सब भारत सरकार के इशारे पर हो रहा है। उससे आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति प्रभावित हुई और नेपाल भारत की बजाय चीन पर अधिक निर्भर हो गया। मोदी का नेपाल दौरा तब पड़ी गांठ को खोल सकता है। इस बीच भारत-नेपाल और चीन के बीच गलतफहमियां दूर करने के राजनयिक प्रयास तेज हुए हैं। पिछले महीने नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली भारत आए थे तो भारत के प्रधानमंत्री मोदी चीन गए थे। इस बीच नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप गयाली भारत का दौरा करने के बाद सीधे चीन गए। तब चीन के विदेश मंत्री वांग ही ने कहा था कि भारत और चीन के सहयोग का स्वाभाविक फायदा नेपाल को मिलना चाहिए। ऐसे में मोदी को चाहिए कि वे नेपाली प्रधानमंत्री ओली के समृद्धि के नारे को अर्थ प्रदान करें। इस काम को करने के लिए जल विद्युत परियोजनाएं, जलमार्ग परिवहन, रेलवे लाइनों का विस्तार जैसे कार्यक्रम शामिल हैं। मोदी की ही तरह ओजस्वी वक्ता और देश को नए-नए सपने दिखाने में माहिर ओली चाहते हैं कि समुद्र से कटे उनके देश का भी एक जहाजी बेड़ा हो, जिस पर नेपाल का ध्वज फहराता रहे। भारत को नेपाल से पौराणिक रिश्ता जोड़ने के साथ एक आधुनिक देश की इन भावनाओं को समझना होगा।

भारत-इंडोनेशिया तुलना (Source:- Business Standard )

टी. एन. नाइनन

यह बात एकदम जाहिर हो चली है कि भारत और चीन के बीच तुलना का कोई तुक नहीं है। ये दोनों देश भौगोलिक रूप से विशाल और अधिक आबादी वाले हैं, दोनों को दो सर्वाधिक तेज गति से विकसित होती अर्थव्यवस्था वाले देश माना जाता है, परंतु आर्थिक वृद्घि के मोर्चे पर वे बीते चार दशक में काफी अलग दायरे में रहे हैं। चीन की अर्थव्यवस्था का आकार भारतीय अर्थव्यवस्था का पांच गुना है।  चीन शक्ति के खेल में एक अलग ही दायरे में है जबकि भारत अपने पड़ोस तक में प्रभुत्व गंवा रहा है। तकनीक अधिग्रहण, शिक्षा की गुणवत्ता और गरीबी उन्मूलन के मोर्चे पर चीन हमसे बेहतर है। चुनौतियों से निपटने के मामले में भी उसकी स्थिति हमसे अच्छी है। यह अंतर बताता है कि कैसे अब दोनों देशों की तलाश एकदम जुदा है। चीन के पास मजबूत हथियार निर्माण कार्यक्रम है जबकि भारत रक्षा आयात के क्षेत्र में अग्रणी बना हुआ है। चीन चौथी औद्योगिक क्रांति की ओर मजबूती से बढ़ रहा है जबकि भारत को चीन के अतीत की कम मेहनताने वाले आयात की सफलता के उदाहरण से ही पार पाना है। चीन दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है और उसकी कुछ कंपनियां दुनिया में अव्वल हैं। भारत का आकार इस क्षेत्र में बहुत छोटा है। ऐसा नहीं है कि भारत के पास दिखाने के लिए कोई सफलता ही नहीं है लेकिन आर्थिक और ताकत के मामले में दोनों देश अलग-अलग क्षेत्र में हैं। शायद वक्त आ गया है कि दोनों देशों की तुलना का काम बंद किया जाए। चीन जहां अमेरिका को चुनौती दे रहा है, वहीं भारत में चीन से तुलना की जा रही है। अगर तुलना ही करनी है तो भारत की तुलना इंडोनेशिया से क्यों नहीं की जाती? अगर ऐसा किया गया तो महाशक्ति बनने की अपनी ही गढ़ी हुई छवि को नुकसान पहुंच सकता है। यह भारत की उन उपलब्धियों के साथ नाइंसाफी होगी जिन तक इंडोनेशिया पहुंच नहीं सका है।

 
परंतु प्रमुख मानकों पर इंडोनेशिया चीन से बेहतर तुलना लायक है। इंडोनेशिया की अर्थव्यवस्था 10 खरब डॉलर से अधिक की है और उसकी प्रति व्यक्ति आय 4,000 डॉलर के साथ भारत से दोगुनी है। हम शायद 2030 तक उस स्तर पर पहुंच सकेंगे। चीन की प्रति व्यक्ति आय तो 8,600 डॉलर है जो भारत की पहुंच से कोसों दूर है। इंडोनेशिया की आर्थिक वृद्घि दर 5 से 6 फीसदी के साथ काफी अच्छी है। उसकी आबादी भी बड़ी है, हालांकि वह भारत के पांचवें हिस्से के बराबर ही है। दोनों देशों में आबादी की वृद्घि की दर लगभग समान है। दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएं समान ढंग से चलती हैं। दोनों के पास बड़ा सार्वजनिक क्षेत्र है और उन्होंने बाजार के बजाय मूल्य नियंत्रण को तरजीह दी है। दोनों देश सुधार के पथ पर हैं और उन्होंने विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया है। दोनों की क्रेडिट रेटिंग लगभग समान है, हालांकि भारत वृहद आर्थिक संकेतकों पर बेहतर स्थिति में है। इंडोनेशिया अन्य मोर्चों पर बेहतर है। 
 
विश्व बैंक की कारोबारी सुगमता सूची में वह बेहतर स्थिति में है। भ्रष्टïाचार के मामले में भी उसकी स्थिति भारत से अच्छी है। सामाजिक रुझानों के मामले में भी दोनों देश एक दूसरे के समान है। हालांकि भारत की अधिकांश आबादी हिंदू और इंडोनेशिया की मुस्लिम है, परंतु इंडोनेशिया को एक ऐसा समाज माना जाता है जो व्यापक तौर पर जातीय और धार्मिक विविधता को लेकर सहिष्णु है। अलगाववादी आंदोलन दोनों देशों में लंबे समय से समस्या बने रहे। हाल के दिनों में धार्मिक विभाजन ने दोनों देशों में तनाव और हिंसा में इजाफा किया है। भारत की तरह इंडोनेशिया के समाज में भी धार्मिकता बढ़ रही है। वहां हिजाब पहनने वाली महिलाओं की तादाद बढ़ी है। भारत में भी राजनीति हिंदू बहुसंख्यकवाद की ओर केंद्रित है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संस्थागत नियंत्रण धीरे-धीरे बढ़ रहा है। विभिन्न समूहों का दखल भी बढ़ रहा है। इंडोनेशिया में धार्मिक पुलिस का गठन और रूढि़वादी धार्मिक नेताओं का उभार नजर आ रहा है जो खुद को नैतिकता का झंडाबरदार बताते हैं और इस्लामिक राज्य का प्रसार चाहते हैं। दोनों देशों के बीच अंतर भी है। इंडोनेशिया में बड़े राजनीतिक उतार-चढ़ाव और तीक्ष्ण आर्थिक घटनाएं नजर आई हैं। 
 
उसका लोकतांत्रिक इतिहास कहीं अधिक ताजा है। वहीं आर्थिक मोर्चे पर भारत गरीब जरूर है लेकिन उसका औद्योगिक और वित्तीय क्षेत्र अधिक विविध और विकसित है। दोनों के सामने विकास की एक समान चुनौतियां हैं: औद्योगीकरण, बुनियादी विकास, व्यापक असमानता से निपटना और गरीबी का मुकाबला करना आदि। यानी भले ही हमारी आकांक्षा चीन का संक्षिप्त लोकतांत्रिक संस्करण बनने की हो लेकिन हम शायद इंडोनेशिया का बड़ा लेकिन अधिक परिपूर्ण संस्करण बन सकते हैं।

Friday 11 May 2018

प्रारंभिक शिक्षा का बाजारीकरण, अनौपचारिक शिक्षा की लंबी अवधि अनावश्यक ही अधिक (Source:- दैनिक जागरण)

औपचारिक शिक्षा की किताबी पढ़ाई से पहले अनौपचारिक शिक्षा की लंबी अवधि अनावश्यक ही अधिक है

विशेष गुप्ता , (लेखक समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं)
इन दिनों देश के ज्यादातर हिस्सों में स्कूलों में दाखिलों का दौर चल रहा है। हर तरह के अच्छे स्कूलों में प्रवेश को लेकर मारामारी है। इनमें प्रीस्कूल भी शामिल हैं। बीते कुछ समय से अभिभावकों को प्रीस्कूलों में भी बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए खासी दौड़-धूप करनी पड़ती है। इतना ही नहीं उन्हें फीस के एवज में एक बड़ी रकम भी खर्च करनी पड़ती है। यह किसी से छिपा नहीं कि अब शहरी इलाकों के साथ-साथ किस तरह ग्रामीण इलाकों में भी प्री स्कूलों को खोलने की होड़ है। इस होड़ ने एक ऐसा माहौल बना दिया है कि बच्चों को प्लेग्रुप, नर्सरी, केजी आदि भेजना आवश्यक सा हो गया है। एक समय कच्चे एक-पक्के एक वाली व्यवस्था ने अब अनावश्यक विस्तार ले लिया है।
पिछले दिनों लर्निग ब्लॉक के एक सर्वे से यह बात सामने आई थी कि सरकारी शिक्षा धीरे-धीरे निजी स्कूलों की ओर खिसक रही है। बीते सालों में 22 लाख बच्चे सरकारी स्कूल छोड़कर प्राइवेट स्कूलों में चले गए। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब और उत्तराखंड समेत आठ राज्यों में निजी स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या में 40 से 50 फीसदी तक का इजाफा हुआ है। यदि निजी स्कूलों में नामांकन की यही रफ्तार बनी रही तो 2020 तक नामांकन की यह दर 55 फीसद तक पहुंच जाएगी। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के प्राथमिक सरकारी स्कूल केवल गरीब एवं पिछड़े परिवारों के बच्चों तक सीमित होकर रह गए हैं। इन विद्यालयों का शैक्षिक वातावरण शून्य हो गया है और शिक्षक शिक्षण कार्य के अलावा अन्य सभी काम करते दिखते हैं। सरकारी प्राथमिक शिक्षा के कमजोर तंत्र का फायदा निजी स्कूल उठा रहे हैं। यही वजह है कि प्राथमिक शिक्षा में अंग्रेजी शिक्षण संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई है और अनेक उद्यमी रातों रात शिक्षाविद कहलाने लगे हैं। अंग्रेजी स्कूलों की खासियत यह है कि वे औपचारिक शिक्षा की किताबी पढ़ाई शुरु होने से पूर्व अनौपचारिक शिक्षा पर आधारित हैं।
प्रीस्कूल पढ़ाई के स्तर को देखें तो ज्ञात होता है कि बच्चे की अनौपचारिक पढ़ाई के कई चरण हैं- प्लेग्रुप, एलकेजी और यूकेजी। अनौपचाारिक शिक्षा का यह प्रतिमान पश्चिम से चलकर भारत आया है। प्रीस्कूल अंग्रेजी शिक्षा का इतिहास बताता है कि इस शिक्षा का सिलसिला 18 वीं शताब्दी में औद्योगिक व्यवस्था के चलते कायम हुआ। ऐसे मातापिता जो फैक्ट्रियों में कार्यरत थे उनके परिवार बिल्कुल एकल थे। ऐसे परिवारों के बच्चों के लिए पालन पोषण और प्राथमिक शिक्षा का कोई उचित प्रबंध नहीं था। इस प्रकार के परिवारों के बच्चों के शारीरिक विकास और मानसिक विकास के लिए प्री स्कूलों का प्रबंध किया गया ताकि कार्यशील एकल परिवारों के बच्चों को इन स्कूलों में परिवार जैसा माहौल मिल सके और कामगार बच्चों की तरफ से निश्चिंत होकर अपना कार्य कर सकें। इसका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि पश्चिम में जन्मदर में गिरावट आनी शुरू हुई और आज तमाम देश ऐसे हैं जहां युवाओं के मुकाबले वृद्धों की संख्या अधिक होती जा रही है। चूंकि अब वहां वृद्ध भी वृद्धाश्रम की शरण ले रहे हैं इसलिए बच्चों के सामाजीकरण करने और उन्हें दुनियावी जिंदगी से रूबरू कराने वाला कोई बचा ही नहीं। इस सामाजिक और शैक्षिक टूटन का फायदा प्रीस्कूल शिक्षा ने खूब उठाया।
पश्चिम की तरह भारत में भी यह प्रीस्कूली शिक्षा फलफूल रही है। यह सिलसिला उदारीकरण की प्रक्रिया लागू होने के बाद ज्यादा तेज हुआ है। शहरों में ऐसे एकल परिवार तेजी से बढ़े हैं जिसमें पति-पत्नी, दोनों नौकरी करते हैं। ऐसे दंपती अकेले रहते हैं इसलिए बच्चों को प्रीस्कूली शिक्षा के हवाले करना बेहतर समझते हैं। चूंकि शहरों में यह एक चलन बन गया है कि बच्चों को औपचारिक शिक्षा से पहले अनौपचारिक शिक्षा दिलानी है इसलिए संयुक्त परिवारों में रह रहे दंपती बच्चों को प्री स्कूलों में भेजते हैं। इसके बदले उन्हें अच्छी-खासी फीस चुकानी पड़ती है। विडंबना यह है कि कोई भी इस पर सोचने-विचारने के लिए तैयार नहीं कि आखिर बच्चों को कक्षा एक में दाखिला लेने यानी औपचारिक शिक्षा के पहले प्री स्कूल जाना क्यों आवश्यक है और वह भी सालों-साल? किसी को यह समझ आना चाहिए कि यह सही नहीं कि बच्चों को औपचारिक शिक्षा दिलाने के पहले उन्हें इतना अधिक तैयार करने की जरूरत पड़े। कायदे से तो प्ले ग्रुप या फिर नर्सरी के बाद बच्चों को सीधे कक्षा एक जाना चाहिए।
प्री स्कूलों के फीस ढांचे का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि बच्चों का उठना-बैठना, खाना-पीना और थोड़ी बहुत अंक गणना सिखाने की बड़ी कीमत वसूली जा रही है। भारत जैसे देश में जहां अभी भी परिवार व्यवस्था है वहां प्रीस्कूली शिक्षा के एक उद्योग में तब्दील होने का कोई औचित्य नहीं। देखने में यह भी आ रहा है कि एकल कामकाजी परिवारों ने अपने बच्चों को इन प्री स्कूलों में भेजना शुरू तो कर दिया है, लेकिन किसी भी प्रकार का निगरानी तंत्र न होने से उन्हें यह नहीं पता चलता कि बच्चे का कितना विकास हो रहा है? एक समस्या यह भी है कि प्री स्कूल जाने वाले बच्चे समय से पहले मां-बाप के नैसर्गिक प्रेम से वंचित हो रहे हैं। बाल मनोविज्ञान कहता है कि पांच साल की उम्र बच्चों के विकास की सबसे संवेदनशील अवधि होती है। यह वह अवस्था होती है जब बच्चा परिवार और दुनियावी जिंदगी के बीच तालमेल बैठाता है।
भले ही प्री स्कूली संस्थाएं कामकाजी परिवारों के लिए एक सहारा बन रही हों, लेकिन उनका अनिवार्य होते जाना कोई शुभ संकेत नहीं। कहना कठिन है कि नई शिक्षा नीति तैयार करने वाले इस पर ध्यान देंगे या नहीं कि प्री स्कूली शिक्षा कितनी आवश्यक है? कम से यह तो आवश्यक नहीं होना चाहिए कि बच्चा औपचारिक शिक्षा हासिल करने जाने के पहले कई साल प्री स्कूलों में गुजारे और इसके बदले अभिभावक भारी-भरकम फीस खर्च करें। जो कार्य आजकल प्री स्कूल कर रहे हैं वह एक समय घर के बड़े-बुजुर्ग किया करते थे। एकल परिवारों के चलते अब ऐसा होना थोड़ा कठिन है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि प्री स्कूली शिक्षा के ढांचे पर कोई ध्यान न दे। यदि प्री स्कूल शिक्षा का बाजार बड़ा होता जा रहा है तो सामाजिक-शैक्षिक परंपरा में विचलन के कारण। जहां यह जरूरी है कि वर्तमान की प्रतिस्पर्धा को ध्यान में रखा जाए वहीं यह भी कि बाल मनोविज्ञान की अनदेखी न होने पाए।

बड़े जोखिम का सौदा (Source:- Business Standard)

एक दशक से जारी कोशिशों के बीच दुनिया की सबसे बड़ी खुदरा विक्रेता कंपनी ने 16 अरब डॉलर के सौदे के साथ भारतीय बाजार पर अपनी मजबूत पकड़ बना ली है। वॉलमार्ट के करीब 500 अरब डॉलर के वैश्विक राजस्व आधार के हिसाब से देखें तो तेजी से बढ़ते भारतीय ऑनलाइन खुदरा बाजार में 55 फीसदी हिस्सेदारी हासिल करने के लिए चुकाई गई यह रकम छोटी ही लगती है। यह सौदा इस लिहाज से भी अहम है कि वॉलमार्ट की प्रतिद्वंद्वी कंपनी एमेजॉन ने भारतीय बाजार में छह साल पहले दस्तक दी थी लेकिन अभी तक वह दूसरे स्थान पर ही है। सच है कि इस सौदे ने वॉलमार्ट को फर्राटा शुरुआत दे दी है और मजबूत प्रतिद्वंद्वी का मुकाबला करने के लिए उसके पास पर्याप्त संसाधन भी हैं। अभी तक वित्त की कमी के चलते फ्लिपकार्ट को एमेजॉन का मुकाबला करने में समस्या हो रही थी। असली सवाल यह है कि इस सौदे से वॉलमार्ट को किस तरह के वास्तविक लाभ हुए हैं?

फ्लिपकार्ट की 77 फीसदी हिस्सेदारी के लिए 16 अरब डॉलर का निवेश करने का मतलब है कि फ्लिपकार्ट का कुल मूल्य 21 अरब डॉलर आंका गया है जबकि एक साल पहले इसका मूल्य 10.5 अरब डॉलर था। एक साल के भीतर ही फ्लिपकार्ट के मूल्यांकन में इतनी अधिक बढ़ोतरी के पीछे वॉलमार्ट की भारतीय बाजार में प्रवेश और एमेजॉन की वैश्विक एकाधिकार को चुनौती देने की चाहत से जुड़ी कीमत भी शामिल है। हालांकि भारतीय खुदरा क्षेत्र की असलियत के बरअक्स इस प्रवेश रणनीति को परखने की जरूरत है। भारत का घरेलू ऑनलाइन खुदरा बाजार करीब 38.5 अरब डॉलर का है जो कुल खुदरा बाजार का महज पांच फीसदी ही है। फ्लिपकार्ट की बाजार हिस्सेदारी के हिसाब से देखें तो वॉलमार्ट ने भारतीय खुदरा बाजार का तीन फीसदी हिस्सा हासिल करने के लिए अच्छा-खासा प्रीमियम चुकाया है। ऐसा तब है जब भारतीय खुदरा बाजार दुनिया के शीर्ष दस में भी शामिल नहीं है।
वॉलमार्ट की चुनौती विरासत में मिले एक मसले से भी जुड़ी हुई है। पांच साल तक एमेजॉन के मुकाबले बढ़त बनाए रखने के बावजूद फ्लिपकार्ट 11 साल के अपने वजूद में मुनाफा कमाने में नाकाम रही है। पहले से ही घाटे में चल रही वॉलमार्ट ने भारत में मुनाफा कमाने की स्थिति में पहुंचने की न तो कोई समयसीमा तय की है और न ही यह बताया है कि वह कितना अतिरिक्त निवेश करेगी? संभव है कि दबदबा कायम करने की कोशिश में लगी वॉलमार्ट के लिए मुनाफा अधिक चिंता की बात नहीं होगी। लेकिन यह भी सही है कि खुदरा बाजार की प्रकृति बदल रही है और ऑनलाइन एवं भौतिक ढांचे के बीच सम्मिलन तेज हो रहा है। भारत में बिज़नेस-टू-कस्टमर (बी2सी) का भौतिक ढांचा तैयार कर पाना उसके लिए दूर की कौड़ी ही रहा है। वॉलमार्ट और दूसरी कंपनियां सरकार की अजीबोगरीब नीतियों की शिकार रही हैं जिसमें एकल एवं मल्टी ब्रांड खुदरा कारोबार को अलग-अलग देखा जाता रहा है। मल्टी ब्रांड खुदरा कारोबार में केवल 51 फीसदी विदेशी निवेश की ही इजाजत रहने से हालात चुनौतीपूर्ण रहे हैं।
इस सौदे से कुछ घरेलू ऑनलाइन खुदरा कंपनियों के खत्म हो जाने की आशंका भारत में कारोबार करने से जुड़ी चुनौतियों की तरफ भी इशारा करती है। गत वर्षों में ई-कॉमर्स क्षेत्र अस्थिर नीतियों के घेरे में रहा है। घरेलू ई-कॉमर्स उद्यमियों का ठीक से ख्याल नहीं रखा जाता रहा। बहरहाल दो दिग्गज कंपनियों के बीच चलने वाली प्रतिस्पद्र्धा के चलते ग्राहकों को कुछ समय तक डिस्काउंट की भरमार देखने को मिलेगी। यह सौदा भारतीय स्टार्टअप के लिए शून्य से शुरुआत कर अरबों डॉलर का निवेश जुटाने और भारी राशि पर बेच देने का सफर भी बयां करता है। लेकिन फ्लिपकार्ट से बंसल दोस्तों का बाहर होना यह भी दर्शाता है कि उदीयमान भारतीय उद्यमी आखिर में हार मान लेते हैं।

बढ़ता तापमान ही है असली तूफान (livehindustan.com)

अनिल प्रकाश जोशी (पर्यावरणविद्)

कभी मौसम का इंतजार किया जाता था। किसी भी मौसम का। भीषण सर्दी-गरमी के कष्ट अपनी जगह रहते थे, लेकिन ये मौसम भी जो देते थे, उसे याद रखा जाता था। अब मौसम डराते हैं। किस तरह डराते हैं, यह पिछले एक सप्ताह में हमने देख लिया। देश के 13 राज्यों में आंधी-तूफान के डर ने सड़कों को खाली कर दिया, स्कूलों में छुट्टी की घोषणा कर दी गई और आपदा राहत की एजेंसियों को तैयार रहने के लिए कहा गया। यह डर किसी अफवाह की वजह से नहीं था। इससे पहले दो मई को जब उत्तर भारत में धूल भरी आंधी के साथ तूफान आया, तो 130 से भी ज्यादा लोगों की जान गई थी। दहशत का कारण यह आंकड़ा भी था, लेकिन आशंकाएं निराधार नहीं थीं।
मौसम विभाग भी इसकी लगातार चेतावनी दे रहा था। यह हाल अकेला भारत का नहीं है।  मौसमी आपदाओं की अति दुनिया भर को परेशान करने लगी है। अमेरिका में हरीकेन ने टेक्सॉस व लूसियाना में पिछले वर्ष बड़ी तबाही मचाई थी, हजारों लोग बेघरबार हो गए थे। हाल ही में कैलिफोर्निया में बर्फीले तूफान ने बड़ा कहर ढाया। पर्यावरण बदलाव के साथ ही पूरी दुनिया में जो हो रहा है, उसे समझने की जरूरत है। सच यह है कि ये विभिन्न नामों के बवंडर प्रकृति से छेड़छाड़ का ही नतीजा हैं। पश्चिम एशिया और दक्षिण यूरोप में लूसीफर बवंडर उस बड़ी लू की ही देन था, जो इन क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के कारण चली थी।
हमें एक सरल सी बात समझ लेनी होगी कि तूफान तापक्रमों के अंतरों से पैदा होते और चलते हैं। मैदानों में उच्च तापमान और दूसरे इलाकों में निम्न तापमान का अंतर हवाओं का रुख बदलता है व उच्च तापमान के कारण रिक्तता को भरने के लिए हवाएं चलती हैं। जितना बड़ा यह अंतर होगा, उतना ही तेज तूफान व बवंडर होगा। हाल में ही आया बवंडर पाकिस्तान बॉर्डर के गांव नवाबशाह के उच्च तापमान के कारण बना था। वहां अप्रैल के अंत में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस पार कर गया था। इस तरह के तूफान को वैज्ञानिक भाषा में डाउन बस्र्ट भी कहते हैं और यही बवंडर राजस्थान, पंजाब व उत्तर प्रदेश में पहुंचने पर थंडर स्टॉर्म बना। इसी समय गरमी के कारण बंगाल की खाड़ी में उच्च तापक्रम में वाष्पोत्सर्जित हवा ने भी इस बवंडर का साथ दिया। यह पिछले 20 साल में सबसे बड़ा तूफान था।
दुनिया भर में घट रही ऐसी चरम मौसमी आपदाएं बड़े खतरों की ओर संकेत कर रही हैं। और इन सबके पीछे एक ही कारण है, धरती का बढ़ता तापमान। माना जाता है कि अगर तापमान इसी तरह बढ़ता रहा, तो इस सदी के अंत तक तापक्रम में नौ डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ोतरी हो जाएगी। डर यह है कि शायद उसके बाद वापसी असंभव होगी। इस बदलाव में एक बड़ा कारण वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का बढ़ता घनत्व भी है। अब दुनिया के सबसे बड़े देश अमेरिका को ही लीजिए, जहां वर्ष 1981 से 2016 के बीच में तापक्रम 1.8 डिग्री फारेनहाइट बढ़ा है। इस देश में टॉरनेडो से लेकर बर्फीले तूफान व बाढ़ ने पिछले कुछ दशकों से तबाही मचा रखी है। बढ़ता तापक्रम मात्र बवंडरों को जन्म नहीं दे रहा है, बल्कि इससे समुद्री तल में वर्ष 1880 के बाद से लगातार बढ़ोतरी हुई है। लगभग आठ इंच तक यह तल बढ़ चुका है। सब कुछ ऐसा ही रहा, तो वर्ष 2100 तक के अंत तक यह एक से चार फीट तक बढ़ जाएगा, क्योंकि ग्लेशियर पहाड़ों से चलकर समुद्र में पिघलते हुए पहुंच जाएंगे और समुद्रों में उच्च ज्वार-भाटा व समुद्री तूफान की आवृत्ति बढ़ जाएगी।
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के अनुसार, 1895 से आज तक सबसे ज्यादा गरम वर्ष दुनिया में 2016 ही रहा है। यही वह साल था, जब सभी तरह की त्रासदियों ने दुनिया को घेरा था। बढ़ते तापक्रम व जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में अनायास अंतर भी देखा जा रहा है और कभी अचानक तापमान का गिर जाना या मानसून का एहसास दिला जाना, इसी से जुड़ा है। धरती के बढ़ते तापक्रम का एक और पहलू है और वह है बज्रपात, यानी बिजली का गिरना। एक अध्ययन के अनुसार, अगर यही चलन रहा, तो इस सदी के अंत तक बज्रपात की रफ्तार 50 फीसदी बढ़ जाएगी, क्योंकि हर एक डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर बिजली गिरने की रफ्तार 12 फीसदी बढ़ जाती है।
बदलते जलवायु व तापमान को तूफान तक ही सीमित नहीं समझा जाना चाहिए, यह बर्फ पिघलने का भी सबसे बड़ा कारण बन गया है। एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1960 से 2015 तक उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया में जहां एक तरफ तेज रफ्तार से बर्फ पिघली है, तो वहीं दूसरी तरफ ऊंचे इलाकों में बर्फ जमने में लगभग 10 फीसदी की कमी आई है। जलवायु परिवर्तन का एक बड़ा असर इस रूप में भी सामने आया है कि पहाड़ों में बर्फ पड़ने के समय में भी एक बड़ा अंतर आ चुका है। हिमालय में बर्फ गिरने का उचित समय नवंबर-दिसंबर ही होना चाहिए, ताकि उसे जमने के लिए पर्याप्त समय मिल सके। जबकि जनवरी-फरवरी में पड़ी हुई बर्फ तत्काल पिघल जाती है। इस घटना को सरलता से नहीं लिया जा सकता, क्योंकि जहां एक तरफ बर्फ जमने में संकट आ चुका है, वहीं बढ़ते तापक्रम के कारण हिमखंडों के पिघलने की रफ्तार तेजी से बढ़ रही है और यह पूरी दुनिया में हो रहा है।
इन सब घटनाओं के शुरुआती संकेत 18वीं शताब्दी से ही मिलने शुरू हो गए थे, जब दुनिया में औद्योगिक क्रांति का जन्म हुआ। इसके ही बाद हम विकास के एक वीभत्स चक्रव्यूह में फंसते चले गए। आज हालात ये हैं कि कभी बवंडरों से या फिर बाढ़ से या फिर शीतलहर से दुबके पड़े हैं। इससे मुक्त होने का रास्ता अगर कहीं है, तो इन घटनाओं को समझने और इन पर सोचने का है, ताकि इससे निपटने की रणनीति तैयार की जा सके। वरना कभी एक बड़ा तूफान हमारे सामने खड़ा होगा।

महाबली की मनमानी (Source:- जनसत्ता)

संपादकीय

ईरान को परमाणु बम बनाने से रोकने के लिए अमेरिका ने मित्र देशों के साथ मिल कर ईरान से जो करार किया था, उससे वह पीछे हट गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने संयुक्त कार्यवाही के लिए कार्ययोजना यानी जेसीपीओए से अलग होने और ईरान पर फिर से प्रतिबंध थोपने का जो एकतरफा फैसला किया है, उससे वैश्विक समुदाय सकते में है। ट्रंप का यह कदम दुनिया को नए तनाव में झोंकने वाला है। ईरान भी अमेरिका की कार्रवाई से बौखलाया है। इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों में अमेरिका के अलावा ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, रूस और जर्मनी और यूरोपीय संघ शामिल थे। करीब डेढ़ दशक तक ईरान के साथ तनावपूर्ण रिश्तों और वार्ताओं के कई दौर के बाद यह करार हो पाया था। ट्रंप ने ईरान को कट्टरपंथी देश बताते हुए सीरिया में युद्ध भड़काने का आरोप लगाया है। ट्रंप का कहना है कि ईरान समझौते का पालन नहीं कर रहा है। हालांकि ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, चीन और जर्मनी ने अमेरिका के इस कदम से असहमति जताई है और ईरान के साथ हुए समझौते को जारी रखने का फैसला किया है। ट्रंप ने ईरान को लेकर जो हठधर्मिता भरा रुख दिखाया है, वह नए खतरे की आहट है। साफ है कि ट्रंप का यह कदम ईरान को घेरने की तैयारी है।
अमेरिका और ईरान के बीच जिनेवा में 2015 में हुए इस समझौते का मकसद ईरान का परमाणु कार्यक्रम सीमित करना था। यानी शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए तो ईरान के परमाणु रिएक्टर चलें, लेकिन परमाणु बम नहीं बनाया जाए। यह समझौता ईरान को घेरने का बड़े देशों का अभियान था। अमेरिका और ईरान के रिश्ते दशकों तक तनावपूर्ण रहे और इस दौरान दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध भी नहीं रहे। समझौता न करने की वजह से ईरान को वर्षों कड़े आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। इस समझौते के तहत ईरान को अपने उच्च संवर्धित यूरेनियम भंडार का अट्ठानबे फीसद हिस्सा नष्ट करने और मौजूदा परमाणु सेंट्रीफ्यूज में से दो तिहाई को भी हटाने की बात थी। समझौते में कहा गया था कि संयुक्तराष्ट्र के निरीक्षक ईरान के सैन्य प्रतिष्ठानों की निगरानी करेंगे। इसके अलावा ईरान के हथियार खरीदने पर पांच साल और मिसाइल बनाने पर प्रतिबंध आठ साल तक रहना था। समझौते पर हस्ताक्षर के बदले ईरान को तेल और गैस के कारोबार, वित्तीय लेन-देन, उड्डयन और जहाजरानी के क्षेत्र में लागू प्रतिबंधों में ढील देने की बात कही गई थी।
लेकिन ट्रंप के फैसले से सारा गणित पलट गया है। ईरान के साथ समझौते को लेकर सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों में जैसी गुटबाजी हो गई है, वह वैश्विक राजनीति के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इससे नए समीकरण बनेंगे। चीन और रूस तो शुरू से ही ईरान के साथ हैं। पर ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और यूरोपीय संघ ने समझौता जारी रख कर अमेरिका को यह संदेश दिया है कि हर मुद्दे पर उसकी हां में हां मिलाना संभव नहीं है। इसे ईरान को इन देशों का मजबूत समर्थन ही माना जाना चाहिए। ईरान ने भी इन देशों के साथ समझौता बनाए रखने की बात कही है। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजंसी ने भी कहा है कि ईरान में 2009 के बाद से परमाणु हथियार विकसित करने की गतिविधियों के कोई संकेत नहीं मिले हैं और ईरान समझौते के हिसाब से काम कर रहा है। ऐसे में समझौते से अमेरिका का हटना वाजिब नहीं कहा जा सकता।

लोकपाल

A लोकपाल    लोकपाल चर्चा   में   क्यों   है ? हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष (पी.सी. घोष) ...